Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
View full book text
________________
१४
नेवज इंद्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा ।
चरु तुम ढिग सोहै सार, अचरज है पूरा ॥नंदी० ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरेदीपे द्विपंचाशजिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति-प्रकाश, तुम तन मांहिं लसै।
टूट करमन को राश, ज्ञान-कणी दरस ॥नंदी० ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु-धूप-सुवास, दश-दिशि नारि वरै।
अति हरप-भाव परकाश, मानों नृत्य करै ॥नंदी० ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविधि फल ले तिहुँ काल, आनंद राचत हैं ।
तुम शिव-फल देहु दयाल, तुहि हम जाचत हैं ।।नंदी० ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
यह अरघ कियो निज-हेत, तुमको अरपतु हों।
'द्यानत' कीज्यो शिव-खेत, भूमि समरपतु हों ।।नंदी० ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाश जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अनर्षपदप्राप्तये अर्ष निर्वपामोति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा
कार्तिक फागुन साढके, अंत आठ दिन माहि । नंदीश्वर सुर जात हैं, हम पूर्जे इह ठाहिं ।।१।।

Page Navigation
1 ... 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165