Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
View full book text
________________
१४३
हमें सकति सो नाहिं इहां करि थापना ।
पूजें जिनगृह-प्रतिमा है हित आपना । ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्यजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठः तिष्ठः ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
कंचन-मणि-मय-भृङ्गार, तीरथ-नीर भरा। तिहुं धार दई निरवार, जामन मरन जरा॥ नंदीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों।
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद-भाव धरों॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिक्षु द्विपंचाज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्व०
भव-तप-हर शीतल वास, सो चंदन नाहीं।
प्रभु यह गुन कीजै सांच आयो तुम टांही ।।नंदी० ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपा०
उत्तम अक्षत जिनराज, पुञ्ज धरे सोहै ।
सब जीते अक्ष-समाज, तुमसम अरु को है ।।नंदी. ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अक्षयपदप्राप्नये अक्षनान् निर्वपामीति स्वाहा। ____तुम काम विनाशक देव, ध्याऊं फूलनी ।
___ लहुँ शील-लच्छमी एव, छटों सलनमौं ।नंदी० ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशाज्जिनालयस्थजनप्रतिमाभ्यो कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीनि स्वाहा।

Page Navigation
1 ... 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165