Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
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१४१. तम-हर उज्ज्वल ज्योति जगाय, दीपसों पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचों मेरु असी जिन धाम, सब प्रतिमा को करो प्रनाम । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिजिनचत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो दीपं निर्वः खेऊ अगर अमल अधिकाय, धूपसों पूजौं श्रोजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्वन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो धूपं निर्व. सुरस सुवर्ण सुगंध सुभाय, फलसों पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देख्ने नाथ परम सुख होय ।।पांचों०।। ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो फलं निवं. आठ दरबमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय पांचों ॐ ह्रीं पंचमेमसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अर्घ निर्व.
जयमाला प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा। विद्युन्माली नाम, पंच मेरु जग में प्रगट ॥१॥
वेसरी छन्द प्रथम मुदर्शन मेर विराज, भद्रशाल वन भूपर छाजे । चैत्यालय चारों मुखकारी, मनवचनन बंदना हमारी ॥२॥ ऊपर पंच-शतकपर सोहै, नंदन-वन देखन मन मोहै। चैत्यालय चारों सुखकारो, मनवचतन बंदना हमारी ।।३।।

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