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१३६ साधु-समाधि सदा मन लावै, तिहुं जग भोग भोगि शिव जावै।। निश-दिन वैयावृत्य करया, सो निह भव-नीर तिरया। जो अरहंत-भगति मन आनं, सो जन विषय कषाय न जान ।। जो आचारज-भगति कर है, सो निर्मल आचार धरै है। बहुश्रुतवंत-भगति जो करई, सो नर संपूरन श्रुत धरई ।। प्रवचन-भगति कर जो ज्ञाता, लहै ज्ञान परमानंद-दाता। षट् आवश्यक काल जो साधे, सो ही रत्न-त्रय आराधे ।। धरम-प्रभाव करें जे ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी। वत्सल अंग सदा जो ध्यावं, सो तीर्थकर पदवी पावै ।। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिपोडशकारणेभ्यो पूर्णाऱ्या निवपामी०
दोहा एही सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय । देव-इन्द्र-नर-वंद्य-पद, 'द्यानत' शिव-पद होय ॥
[इत्याशीर्वाद]
पंचमेरु पूजा [कविवर द्यानतरायजी]
गीता छन्द तीर्थकरों के न्हवन - जलते भये तीरथ शर्मदा,
तातै प्रदच्छन देत मुर-गन पंच मेम्नकी मदा। दो जलधि ढाई द्वीप में सब गनत-मूल विराजहीं, पूजौं असी जिनधाम-प्रतिमा होहि मुख दुख भाजहीं ।।