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१३७ * ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि ! अत्र मम सन्निहितानि भव भव वषट् ।
कंचन-झारी निरमल नीर पूजों जिनवर गुन-गंभीर। परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो। दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय ।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धि - विनय सम्पन्नता - शीलव्रतेष्वनतिचाराभीक्ष्णज्ञानोपयोग-संवेग - शक्तितस्त्याग-तपसी-साधुसमाधि - वैयावृत्यकरणाहद्भक्तिआचार्यभक्ति - बहुश्रुतभक्ति - प्रवचनभक्ति - आवश्यकापरिहाणि - मार्गप्रभावना - प्रवचनवात्सल्येतितीर्यकरत्वकारणेभ्योजन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन घसौं कपूर मिलाय पूजों श्री जिनवर के पाय। परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो॥दरश०॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो संसारतापविनागनाय चंदनं तंदुल धवल सुगंध अनूप पूजों जिनवर तिहुं जग-भूप।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।दरश०।। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्
फूल सुगंध मधुप-गुंजार पूजौं जिनवर जग-आधार ।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥दरश०॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं
सद नेवज बहुविधि पकवान पूजों श्रीजिनवर गुणखान ।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥दरश०॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नै० दीपक-ज्योति तिमिर छयकार पूजू श्रीजिन केवलधार ।