Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
View full book text
________________
१३५
शुभगंध दशोंकर, पावकमें धर, धूप मनोहर खेवत हैं। सब पाप जलावे, पुण्य कमावं, दास कहावें, सेवत हैं ।तीर्थ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै धूपं निर्वपामीति स्वाहा। वादाम छुहारी, लौंग सुपारी, श्रीफल भारी, ल्यावत हैं। मनवांछित दाता, मेट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं ॥तीर्थ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै फलं निर्वपामीति स्वाहा । नयननसुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वलभारी, मोलधरें। शुभगंधसम्हारा, वसन निहारा, तुम तन धारा, ज्ञान करें ।तीर्थ० ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै वस्त्रं निर्वपामीति स्वाहा । जलचंदन अच्छत, फूल चरू चत, दीप धूप अति फल लावें। पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत, सुख पावै ।।तीर्थ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अर्ष निर्वपामीति स्वाहा ।
अथ जयमाला (सोरठा) ओंकार धुनिसार, द्वादशांगवाणी विमल । नमों भक्ति उर धार, ज्ञान कर जड़ता हरै।
छन्द वेसरी पहलो आचारांग वखानो, पद अष्टादश सहस प्रमानो। दूजो सूत्रकृतं अभिलापं, पद छत्तीस सहस गुरु भापं ।।१।। नीजो ठाना अंग सुजानं, सहस बियालिस पद सरधानं। चौथो समवायांग निहारं, चौसठ सहस लाख इक धारं ।।।। पंचम व्याख्याप्रज्ञपतिदरसं, दोय लाख अट्ठाइस महमं । छट्टो ज्ञातृकथा विसतारं, पांच लाख छप्पन हजारं ।।३।। मप्तम उपासकाध्ययनंग, सत्तर सहस ग्यार लख भंगं । अष्टम अंतकृतं दश ईसं, सहस अठाइस लाख तईमं ॥४॥

Page Navigation
1 ... 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165