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१३३ जय त्रिभुवन मोहन छवि अनूप, जय धर्मप्रकाशक ज्योतिरूप ॥ जय मुनिजन भूषण घर्मसार, अकलंकरूप मोहि करहु पार । जय मात सुनन्दा के सुनन्द, शिव राज्य देहु मोहि जगतबंद || है स्वर्णमयी प्रतिमाभिराम, पोदनपुर में शतशः प्रणाम । धनु सवापांचसी हो जिनेन्द्र, जजते कुसुमांजलि ले सुरेन्द्र ।। प्रतिमा विध्येश्वरकी प्रधान, नित नमूं कारकल की महान । वेणूर पुरीकी है ललाम, गोमटनिरिपति को हो प्रणाम ।। आरा मे रहे विराज नाथ, शतबार तुम्हें हम नमत माथ । जितनी हों जहं अहं बिम्बसार, सबको मेरा हो नमस्कार ॥
धत्ता
जय बाहुबलीश्वर महाऋषीश्वर, दयानिधीश्वर जगतारी । जय जय मदनेश्वर जितचक्रेश्वर, विध्येश्वर भवभयहारी ॥ महाघं
बाहुबली के महापादपद्मों को, जो भवि नित्य जजं, सर्वसंपदा पावे जग में, ताके सब संताप भजें । होकर 'वीर' बाहुबलि जैसा, 'धर्म' चक्र का कंत सर्ज, कर्मबेड़ियां काट स्वपर को, निश्चय शिवपुरराज रजं ॥ [ इत्याशीर्वाद ]
सरस्वती पूजा
जनम जरा मृत्यु छय करें, हरे कुनय जड़रीति । भवसागर सों ले तिरं, पूजं जिन वच प्रीति ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीवाग्वादिनि ! अत्र अवतर अवतर सवौषट् ।