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१३२ तुम पोदनेश बाहूबलीश, नहिं थे वश में नहिं नमो शीश ॥ इस पर ही युद्ध ठना महान, थीं खड़ी सैन्य चतुरंग आन। हैं भरत बाहु द्वय चरम अंग, इनका नहिं होगा अंग भंग ॥ बहु सेना का होगा संहार, कर उभयपक्ष मन्त्री विचार । ठहराए निर्णय हित प्रबुद्ध, थिर-दृष्टि मल्ल जल तीन युद्ध ।। तीनों जीते तुम हे बलीश, तव क्रोधित हो वह चक्र ईश । निज चक्रदिया तुम पर चलाय, कुल रीति नीति सबको भुलाय।। पर चक्ररत्न तुम पास आय, फिरि गया सप्रदिक्षण शीश नाय । यह ज्येष्ठ भ्रात की क्रिया देख , इस जग की स्वार्थकता विलेख । तुम देव भये जग से उदास, सब शिथिल किया भवमोह पास। दे तनुज महाबल को स्वराज, सब सौंप उसे वैभव समाज ॥ कह भरतेश्वर से बनो ज्येप्ट, इस नश्वर भू के भूप श्रेष्ठ । फिर यथाजात मुद्रा मु धार, कर किया कमरिपु का संहार ।। इक वर्ष खड़े थे एक थान, धर प्रतिमायोग अखण्ड ध्यान । थे एक वर्ष तक निराहार, सर्वोत्कृष्ट तप महा धार ॥ बाईस परीपह सहे धीर, तपते थे तप जिन अति गहीर । थे उगे लता तरु आस पास, चरनन में था अहि का निवास ।। थे तजे उग्र तप के प्रभाव, वन के सब जीव विरोध भाव । अनुताप तुम्हें इक था महेश, पाए हैं मुझसे भरत क्लेश ।। भरतेश्वर से सन्मान पाय, सन्ताप गया सत्वर नशाय । तब भए केवली हे जिनेश, पूजन की आकर नर सुरेश । उपदेश दिया करणा-अधार, भवि जीवों को करके विहार । कैलाश शिखर से मुक्ति थान, पाया तुमने सब कर्म हान ।। जय गोमटेश बाहुबलीश, जय जय भुजवलि जय दोवलीश ।