Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi

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Page 142
________________ १३८ परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो | | दरश ० ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो मोहान्धका रविनाशनाय दीपं निर्वपा० । अगर कपूर गंध शुभ खेय श्रीजिनवर आगे महकेय । परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो | दरश ० || ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिपोडशकारणेभ्योऽप्टकर्मदहनाय धूपं निर्व० श्रीफल आदि बहुत फलसार पूजौं जिन वांछित दातार । परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय । परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो || ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडश कारणेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं जल फल आठों दरब चढ़ाय 'द्यानत' वरत करों मनलाय । परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो | दरश ० ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडश का रणेभ्योऽनषंपदप्राप्तये अर्थ निर्व० षोडश कारण गुण करे, हरं चतुरगति वास । पाप पुण्य सब नाश के, ज्ञान-भान परकाश ॥ चौपाई १६ मात्रा दरशविशुद्धि धरे जो कोई, ताको आवागमन न होई । विनय महाधारं जो प्राणी, शिव वनिता की सखी बखानी ॥ शील सदा दिढ जो नर पाल, सो औरन की आपद टालें । ज्ञानाभ्यास करें मनमाहीं, ताके मोह महातम नाहीं ॥ जो संवेग भाव विसतारे, सुरग-मुकति-पद आप निहारं । दान देय मन हरप विशेखं, इह भव जस परभव सुख देखें || जो तप तपं खपे अभिलाषा, चुरे करम - शिखर गुरु भापा ।

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