________________
विंध्याचल के उच्च शिखर पर हीरक ज्यों दमके जिन भाव । नप: पून सर्वांग सुखद हैं आत्मलीन जो देव विशाल । वर विराग प्रसाद शिखामणि, भुवन शांतिप्रद चन्द्र ललाम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ॥४॥ निर्भय वन बल्लरियां लिपटी पाकर जिनकी शरण उदार। भव्य जनों को सहज सुखद हैं कल्पवृक्ष सम सुख दातार। देवेन्द्रों द्वारा अचित हैं जिन पादारविंद अभिराम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ।।५।। निष्कलंक निग्रंथ दिगम्बर भय भ्रमादि परिमुक्त नितांत । अम्बरादि-आसक्ति विजिन निर्विकार योगीन्द्र प्रशांत । सिंह-म्याल-शुंडाल-व्यालकृत उपसर्गों में अटल अकाम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शन-शन बार विनम्र प्रणाम ॥६॥ जिनकी सम्यग्दृष्टि विमल है आशा-अभिलापा परिहीन । मंमृति-मुख बांछा मे विरहित, दोप मूल अरि मोह विहीन । वन मंपुष्ट विगगभाव में लिया भरत प्रति पूर्ण विराम । विश्ववद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत वार विनम्र प्रणाम ॥७॥ अंतरंग-वहिरंग-संग धन धाम विवजित विभु मंभ्रांत । ममभावी, मदमोह-रागजित् कामक्रोध उन्मुक्त नितांत । किया वर्ष उपबाम मौन रह वाहुबली चरितार्थ मुनाम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शन-शन वार विनम्र प्रणाम ।।८।।