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स्तवन
भव वन में जी भर घूम चुका,
कण कण को जी भर भर देखा । मृग-सम मृग-तृष्णा के पीछे,
मुझको न मिली सुख की रेखा ॥१॥ झूठे जग के सपने सारे, .
झूठी मन की सब आशायें । तन-यौवन-जीवन अस्थिर है,
क्षण भंगुर पल में मुरझाएं ॥२॥ सम्राट महा-बल सैनानी,
उस क्षण को टाल सकेगा क्या। अशरण मृत काया में हर्षित,
निज जीवन डाल सकेगा क्या ॥३॥ संसार महा दुख-सागर के,
प्रभु दुखमय सुख-आभासों में। मुझको न मिला सुख क्षणभर भी,
कंचन-कामिनि-प्रासादों में ॥४॥ मैं एकाकी एकत्व लिए,
एकत्व लिए सब ही आते । तन-धन को साथी समझा था,
पर ये भी छोड़ चले जाते ॥५॥