Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
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हम जाचतु हैं इतनी सुन जी॥
धत्तानंद श्रीवीर - जिनेशा नमित - सुरेशा,
नाग - नरेशा भगति भरा । 'वृन्दावन' ध्यावै विधन नशाव,
वांछित पावं शर्म - वरा ॥ ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय महाघ निवं पामीति स्वाहा। श्रीसन्मति के जुगल पद, जो पूर्ज धरि प्रीति । 'वृन्दावन' सो चतुर नर, लहै मुक्ति-नवनीत ।।
(इत्याशीर्वादः । पुष्पाञ्जलि क्षिपामि )
श्री गोम्मटेश्वर पूजा
मत्तगयंद छंद
स्थापना देखत ही द्युतिवन्त हरे, तनकी छवि, सुधाधर हारे। ध्यान विवेक तपोबल से, जिनने अरि-कर्म प्रचंड संहारे॥ बाहु पसार अनुग्रह की, भवसागर से भवि जीव उबारे। सो जिन बाहुबलीश, दयाकर तिष्ठहु मानस आय हमारे । ॐ ह्रीं श्रीवाहुबलिभगवन् अन्न अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिभगवन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिभगवन् मम सन्निहितो भव भव वषट् ।

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