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तुम ही जग-जीवनि के पितु हो,
तुमही बिन कारनतें हितु हो । तुमही सब विघ्न - विनाशन हो,
तुमही निज आनंद - भासन हो। तुमही चित - चिंतित - दायक हो,
जगमाहिं तुम्हों सब लायक हो । तुमरे पन मंगलमाहिं सही,
जिय उत्तम पुन्न लियो सब ही। हमको तुमरी सरनागत है,
तुमरे गुन में मन पागत है ।। प्रभु मो हिय आप सदा बसिये,
जब लों वसु कर्म नहीं नसिये । तब लों तुम ध्यान हिये बरतो,
तब लों श्रुत चिंतन चित्त रतो । तब लों व्रत चारित्र चाहतु हों,
तब लों शुभ भाव सु गाहतु हों। तब लों सत - संगति नित्त रहो,
तब लों मम संजम चित्त गहो ।। जब लों नहिं नाश करो अरि को,
शिव-नारि बरों समता धरि को। यह द्यो तब लों हमको जिनजी,