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मेरे न हुए ये मैं इन से,
अति भिन्न अखण्ड निराला हूं। निज में पर से अन्यत्व लिए,
निज सम रस पीने वाला हूं ॥६॥ जिसके शृङ्गारों में मेरा,
यह मंहगा जीवन घुल जाता। अत्यन्त अशुचि जड़ काया से,
इस चेतन का कैसा नाता ॥७॥ दिन रात शुभाशुभ भावों से,
मेरा व्यापार चला करता । मानस वाणी अरु काया से, ___आश्रव का द्वार खुला रहता ॥८॥ शुभ और अशुभ की ज्वाला से,
झुलसा है मेरा अन्तस्तल । शीतल समकित किरणें फूटें,
संवर से जागे अन्तर्बल ॥६॥ फिर तप की शोधक वन्हि जगे,
कर्मों की कड़ियां टूट पड़ें । सर्वाङ्ग निजात्म प्रदेशों से,
अमृत के निर्झर फूट पड़ें ॥१०॥ हम छोड़ चलें यह लोक तभी,