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बिरागी अचाराज उवज्झाय साधू,
दरश ज्ञान भडार समता अराधू । नगन वेशधारी सु एका विहारी,
निजानन्द मंडित मुकतपथ प्रचारी। विदेह क्षेक्ष में तीर्थंकर बीस राजे,
विहरमान बन्दू सभी पाप भाजे । नमूं सिद्ध निरभय निरामय सुधामी,
अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ।। देव शास्त्र गुरु वीस तीर्थकर, सिद्ध हृदय विच धरले रे । पूजन ध्यान गान गुण करके, भवसागर जिय तरले रे ।।अर्घम्।। भूत भविष्यत् वर्तमान को तीस चौबीसी मैं ध्याऊ । चैत्य चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम तीन लोक में मन लाऊ । __ॐ ह्रीं त्रिकाल सबंधी तीस चौबीसी, त्रिलोक संबंधी कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यचैत्यालय येभ्यो अर्धं नि०स्वाहा। चैत्य भक्ति आलोचना चाहुं, कायोत्सर्ग अघ नामन हेत। कृत्रिमाकृत्रिम तीन लोक में, राजत हैं जिनविव अनेक ॥ चतु निकाय के देव जज, ले अप्ट द्रव्य निज कुटुम्ब समेत । निज शक्ति अनुसार जजूं मैं, कर समाधि पाऊं शिव खेत ।।
(पुष्पांजलि क्षेपण) पूर्व मध्य अपरान्ह की वेला पूर्वाचार्यों के अनुसार । देव वन्दना करू भाव मे सकल कर्म की नामनहार ।। पंच महागुरु मुमिरन करके कायोत्सर्ग कर मुखकार । सहज म्वभाव शुद्ध लख अपना, जाऊंगा, मैं अब भवपार ।। (कायोत्सर्ग पूर्वक नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें)