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थकी नाव भवदधिविष, तुम प्रभु पार करेय । खेवटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥ रागसहित जगमें रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतराग भेटयो अब, मेटो राग कुटेव ॥१४॥ कित निगोद कित नारकी, कित तिथंच अज्ञान । आज धन्य मानुप भयो, पायो जिनवर थान ॥१५॥ तुम को पूर्जे सुरपति, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग्य मेरो भयो, करनलग्यो तुम सेव ॥१६॥ अशरण के तुम शरण हा, निराधार आधार । मैं डूबत भव-सिन्धु में, खेउ लगाओ पार ॥१७॥ इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान । अपनो विरद निहारक, कीजे आप समान ॥१८॥ तुमरी नेक सुदृष्टिते, जग उतरत है पार । हाहा डूबो जात हों, नेक निहार निकार ॥१६॥ जो मैं कहऊँ औरसों, तो न मिट उरझार । मेरी तो तोसों बनी, तातें करौं पुकार ॥२०॥ बंदों पांचों परमगुरु, सुरगुरु वंदत जास । विघनहरन मंगल करन, पूरन परम प्रकास ॥२१॥ चौबीसों जिनपद नमों, नमों शारदा माय । शिवमगसाधक साधु नमि, रच्यो पाठ सुखदाय ॥२२॥