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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१८ सहारा? एक बुद्धिमान और जागृत युवा होकर, उन करोड़ों मनुष्यों की, जो कि अनन्त अभाव में भूख प्यास, रोग-शोक, आधि-व्याधि और आक्रन्द में जीवन जीने को मजबूर हैं, तरफ नहीं देखेगा? इतना स्वार्थी बनेगा? क्या उन करोड़ों दीन-अनाथ-असहाय मनुष्यों के आँसू तू नहीं पोंछेगा? उनके लिए तू आँसू नहीं बहायेगा?
इतना ही नहीं, तेरी दृष्टि को चौदह राजलोक-व्यापी बना दे। असंख्य पशुओं को, नारकी के असंख्य जीवों को भी देख ले। उनकी भयंकर पीड़ा को तो देख | नरक की वैतरणी में जो अपने ही खून से उबलती कड़ाही में तले जा रहे हैं... कितने असहाय? कितनी तड़पन? कितनी यन्त्रणा और कितना सन्त्रास? ___ और, उन सूक्ष्मतम निगोद के जीवों को तो देख जरा, एक साँस में अठारह बार जन्म और मृत्यु... कितना भयानक कष्ट? मेरे प्रियजन! आँखें बन्द कर जरा देखो... हमने भी अनन्तकाल तक अन्तहीन कष्ट झेले हैं इन दुर्गतियों में। क्या इन असंख्य-अनन्त जीवात्माओं को इस वेदना-त्रास और मृत्यु में जीते तू देख सकेगा? जीवमात्र की इस घोर यंत्रणा को देखते हुए भी तू अपनी सुखशय्या में सो सकेगा? ____ मेरा मन तो व्यथित हो जाता है, जब संसार के जीवों की घोर यन्त्रणाओं को, प्रपीड़न को और संत्रास को देखता हूँ। जब इनकी जड़ों में उतरता हूँ - मोह और अज्ञान की घोर तमिस्रा देखता हूँ... जब तक जीवात्माएँ मोह और अज्ञान से आवृत हैं, तब तक उनके दुःखों का अन्त नहीं। मन में होता है:
मोह और अज्ञान के अन्धकार को काट दूं.. कर्मपाशों को तोडूं और अपनी तमाम शक्ति एकत्र कर विषय-कषाय के बन्धनों पर प्रहार कर दूँ। अब मैं जीवों को बिलखते, छटपटाते... कराहते नहीं देख सकता हूँ...। मैंने अपने अन्तःकरण में माना है कि मेरे जीवन का परम कर्तव्य यही है... मुझे अपने सुखों का विचार तक नहीं करना है। __ यह तो मैंने मेरे मन की बात कर दी। तुझे मैं वैसी यथार्थ दृष्टि देना चाहता हूँ कि जिस से तू आत्मानंद का अनुभव कर सके। एक ही व्यक्ति या दो-चार व्यक्ति के लिए ही जीवन जीना... गतानुगतिकता ही है। यह जीवन तो जीव मात्र को प्रेम... स्नेह और करुणा प्रदान करने के लिए है। आत्मचेतना की जागृति और उर्वीकरण करने के लिए है। स्थूल में से सूक्ष्म में जाने के लिए है।
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