Book Title: Jindgi Imtihan Leti Hai
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 226
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है २१३ ® धर्मक्षेत्र में भी आज निर्णायकता होने के कारण कितनी तरह की विकृतियाँ प्रविष्ट हो गई हैं! सभी अपनी-अपनी डफली पर अपना-अपना राग आलापते ® स्वयं को बिल्कुल बेगुनाह मानना और दूसरों को अपराधी मानना मन की बड़ी कमजोरी है। ® सभी जीवात्माओं के साथ संपूर्ण निर्वैरभाव को विकसित किये बगैर आत्मा की शुद्धि-विशुद्धि संभवित नहीं है। ® अपने बड़प्पन की भ्रामिक कल्पनाओं को जलाना होगा। ॐ मैत्री यानी सख्यभाव, सख्यभाव में स्नेह होता है, संदेह नहीं! सख्यभाव में प्यार रहता है... तकरार या तिरस्कार नहीं! पत्र : ५१ प्रिय गुमुक्षु! धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला था। प्रत्युत्तर लिखने में विलम्ब अवश्य हुआ है, परंतु लिखने की इच्छा सदैव बनी रही है। महापर्व पर्युषणों के दिनों में और बाद में भी अत्यधिक व्यस्तता के कारण, शान्त-प्रशान्त चित्त से लिखने का समय ही नहीं मिला। थोड़ा समय मिला था परंतु वह समय, कच्छ के दैनिक-पत्र 'कच्छमित्र' में पर्युषणपर्व विषयक लेखमाला लिखने में व्यय हो गया! __ पहले... बहुत पुराने जमाने में यह मात्र श्रमण और श्रमणियों का निवृत्तिमय आराधनपर्व था। 'एक जगह रहना, यह अर्थ होता था पर्युषण का | साधु एवं साध्वी, भाद्रपद शुक्ला पंचमी से एक गाँव में ७० दिन तक रह जाते थे। दूसरे गाँव में विहार नहीं करते थे। एक जगह ७० दिन की स्थिरता कर, ज्ञान-ध्यान और तप-त्याग में लीन बनते थे। इस ७० दिवसीय 'केम्प' के प्रारंभ में मंगलनिमित्त श्री ‘कल्पसूत्र' का अध्ययन करते थे, साधु-साध्वी। साधु पुरुष पढ़ते थे, साध्वी सुनती थी। यह था पर्युषणपर्व का मूल स्वरूप! ___ आज यह पर्व चतुर्विध संघ का हो गया है! श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् ९०० वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद, पर्युषण चतुर्विध संघ का पर्व बना है। यानी साधु-साध्वी-श्रावक और श्राविका इस पर्व को मनाते For Private And Personal Use Only

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