Book Title: Jindgi Imtihan Leti Hai
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 232
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है २१९ तुम्हारे प्रति सद्भावपूर्ण कामनाएँ निरन्तर बहती रहेंगी...! तेरे प्रति ही नहीं, समग्र जीवनसृष्टि के प्रति मेरे हृदय की मंगल कामनाएँ निरन्तर बहती रहे... किसी भी जीवात्मा के प्रति दुर्भावना पैदा न हो... ऐसी मेरी हार्दिक अभिलाषा बनी हुई है | परमात्मा से मेरी यही आन्तरप्रार्थना होती है कि समग्र जीवसृष्टि के साथ मेरा सदैव स्नेहपूर्ण सम्बन्ध बना रहे। प्रिय मुमुक्षु, तेरा-मेरा प्रत्यक्ष संबंध रहा है और परोक्ष सम्बन्ध भी इन पत्रों द्वारा रहा है। कल्याणयात्रा में बना हुआ यह सम्बन्ध है। तूने पूर्ण विनय, नम्रता और सद्भावनाओं से उस सम्बन्ध को सार्थक किया है। मैंने कभी उग्र शब्दों में, कभी कटुतापूर्ण शब्दों में तेरे साथ व्यवहार किया होगा... तूने कभी मेरे प्रति मन में भी दुर्भावना नहीं लायी है। मेरा आक्रोश भी तुझे प्रिय लगा है। मेरी कटुता को भी तूने अमृत मानकर पी ली है...| तेरे प्रति खूब सद्भाव बढ़ने का यही मूलभूत हेतु है। हालांकि पत्र के माध्यम से अब कुछ वर्ष इस तरह मिलना नहीं होगा परन्तु प्रत्यक्ष मिलना तो अवसर-अवसर पर होता रहेगा ही। जब कभी तेरे मन में मिलने की उत्सुकता बढ़ जाय, तू आ सकता है मेरे पास। तेरे मन में प्रश्न पैदा होगा कि 'अरिहंत' में क्या मैं अब 'जीवनदृष्टि' नहीं लिखूगा । 'जीवनदृष्टि' जैसे मेरा प्रिय चिन्तन का विषय रहा है, वैसे 'गुणदृष्टि' भी मेरा प्रिय चिन्तन का विषय रहा है। एक बहुत प्राचीन जैनाचार्य श्री शांतिसूरिजी ने अपने 'धर्मरत्न' नाम के ग्रन्थ में, मनुष्य को धार्मिक बनने से पूर्व 'गुणवान' बनना अनिवार्य बताया है। करीबन २० वर्ष पूर्व जब मैंने यह ग्रन्थ पढ़ा था तभी से मेरे मन में 'गुणदृष्टि' के विषय में चिन्तन-मनन चलता रहा है। आज २० वर्ष के बाद पुनः मैं उस 'धर्मरत्न' ग्रन्थ पर प्रवचन यहाँ 'भुज' में दे रहा हूँ | खूब आनन्द पाता हूँ इस ग्रन्थ पर विवेचना करते-करते। अब वह आनन्द जीवों को बाँट देना है। चूंकि आनन्द बॉटने से बढ़ता है। आज दिन तक 'अरिहंत' में जितने पत्र छपे हैं, सभी का अनुवाद गुजराती भाषा में हो गया है। १८ पत्रों का संग्रह 'तारा दुःखने खंखेरी नांख' किताब में प्रकाशित हुआ और उसके दो संस्करण प्रकाशित हो गये। शेष ३४ पत्रों का संग्रह 'तारा सुखने विखेरी नांख' पुस्तक में प्रकाशित हो रहा है। ३४ पत्रों का अनुवाद बहुत ही रसपूर्ण भाषा में हुआ है। 'तारा दुःखने खंखेरी नांख' किताब का अंग्रेजी अनुवाद हो गया है, कुछ दिनों में प्रेस में छपने जायेगी। For Private And Personal Use Only

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