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जिंदगी इम्तिहान लेती है
४९ होने से मालूम हुआ कि उसमें तो अनेक दोष हैं... उसके प्रति प्रेम नहीं रहा!' कैसे रहता? वह प्रेम ही नहीं था! ___ कोई कहता है : 'मेरा उसके प्रति अत्यंत प्रेम था, उसको मैंने क्या नहीं दिया? परन्तु उसको मेरी कोई कद्रदानी नहीं... मेरा प्रेम घटता जाता है।' प्रेम होता तो नहीं घटता! वह प्रेम नहीं था, राग था! ___ कोई कहता है : 'मेरा उसके प्रति प्रेम दुनिया जानती है!' दुनिया तुम्हारे प्रेम को कैसे जानेगी? प्रेम स्थूल नहीं है, सूक्ष्म है! सूक्ष्म तत्त्व को दुनिया नहीं जान सकती। दुनिया की दृष्टि में प्रेम तत्त्व आ ही नहीं सकता। राग आ सकता है, मोह आ सकता है।
कोई कहता है : 'मुझे तो कोई सच्चा प्रेम करने वाला मनुष्य ही नहीं मिला है। सब स्वार्थ के प्रेमी हैं....।' जब तक अपना स्वार्थ सिद्ध होता हो, तब तक प्रेम...। सही बात कही इसने! उसको सब लोग स्वार्थी नजर आए! क्यों, जानता है? उसका स्वयं का स्वार्थ किसी व्यक्ति ने पूर्ण नहीं किया, इसलिए! स्वयं जो स्वार्थी होते हैं यानी कोई न कोई इच्छा, कामना, अभिलाषा लिए फिरते हैं और वे इच्छाएँ अपूर्ण रहती हैं... तब वह दूसरों पर 'स्वार्थी' का आरोप मढ़ देते हैं।
क्या तू किसी का निःस्वार्थ प्रेमी बना है? बिना स्वार्थ का प्रेम किसी को दिया है? तो फिर तुझे निःस्वार्थ प्रेम कहाँ से मिलेगा? प्रेम सदैव निःस्वार्थ ही होता है। स्वार्थ वाला तो राग होता है।
एक भाई ने मुझे कहा : 'दुनिया में सब स्वार्थी हैं इसलिए मैं तो किसी से प्रेम नहीं करता। मैं तो परमात्मा से प्रेम करता हूँ, बस!' मैंने उसको पूछा :
परमात्मा को तुमसे कोई स्वार्थ नहीं है, परन्तु तुम्हें परमात्मा से कोई स्वार्थ है या नहीं?'
'परमात्मा से तो स्वार्थ है मुझे!' 'इसका अर्थ यह हुआ कि तुमसे स्वार्थ रखने वाले स्वार्थी और तुम परमात्मा से स्वार्थ रखो वह निःस्वार्थ? यूँ कहो कि तुम्हें कुछ भी दूसरों को देना नहीं है, दूसरों से लेना है! जो तुम्हें देते नहीं वे स्वार्थी लगते हैं! यदि परमात्मा ने भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण नहीं की तो एक दिन तुम परमात्मा को भी स्वार्थी कह दोगे! परमात्मा को छोड़ दोगे!'
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