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जिंदगी इम्तिहान लेती है
४८ ® 'प्रेम' शब्द का प्रयोग इस कदर विकृत हो गया है कि जैसे राग-मोह___ आसक्ति ये सब प्रेम के पर्याय माने जाने लगे हैं! ® जो टूट जाए, वह प्रेम नहीं है! जो बढ़ता-घटता है, वह प्रेम नहीं है! जो
महसूस नहीं होता, वह प्रेम नहीं है! जो प्रदर्शन चाहता है, वह प्रेम नहीं है! ® दुनिया की हानि-लाभ की हिसाबी दृष्टि में प्रेम जैसे अपार्थिव तत्त्व का
मूल्यांकन हो कैसे सकता है? ® स्वयं स्वार्थ के शिकंजे में सुबकते आदमी ही अन्य पर स्वार्थी होने का
आरोप मढ़ते हैं। ® बिना किसी अपेक्षा आकांक्षा से प्रेम के फूल खिलाने वाला व्यक्ति ही सही
अर्थ में आत्मज्ञानी कहा जा सकता है! कोरी शास्त्रज्ञता अनुभूति की ऊंचाइयों को छू नहीं पाती!
पत्र : ११
प्रिय गुमुक्षु।
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला! प्रसन्नता हुई। दूसरे पत्र भी मिले हैं। प्रेम के विषय में कुछ लोगों ने गहरी अभिरूची ली है और वे इस विषय में विशेष गहराई में जाना चाहते हैं। अच्छा है, गहराई में गये बिना रहस्यभूत तत्त्व पाया नहीं जा सकता।
'प्रेम' शब्द का प्रयोग इतना सामान्य हो गया है कि सामान्य बुद्धि वाला मनुष्य असमंजस में पड़ जाता है। राग और मोह से भिन्न 'प्रेम' एक दिव्य तत्त्व है, यह बात मैं इसलिए विशेष स्पष्ट कर रहा हूँ। जहाँ गुण और कामना माध्यम बनते हैं, वहाँ प्रेम नहीं होता। जहाँ निरन्तर वृद्धि नहीं होती, कभी वृद्धि, कभी हानि होती है, वहाँ प्रेम नहीं होता! जो टूट जाता है, अखंड नहीं रहता है, वह प्रेम नहीं है। जो प्रदर्शन चाहता है, वह प्रेम नहीं है। जिसकी गहन अनुभूति नहीं होती है, वह प्रेम नहीं है। वह राग हो सकता है, मोह हो सकता है।
कोई कहता है : 'मैंने तो गुणवान समझ कर प्रेम किया था, परन्तु परिचय
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