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जिंदगी इम्तिहान लेती है ® दु:खों से डरकर पलायन कर जाना... कोई बुद्धिमत्ता या सुज्ञता नहीं है...
समताभाव में रचपच कर दु:खों का और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना
करना, यही वीरता की निशानी है। @ कल्पनाओं का ही नहीं वरन् वास्तविक स्वर्ग भी तो अल्पजीवी होता है...
फिर उसका भी आकर्षण क्या? * अक्सर प्रतिकूल स्थिति में प्राण परमात्मा का नैकट्य पाने के लिए पूरी तरह
विह्वल हो उठते हैं! ® निर्वैर भाव की साधना-आराधना अनिवार्य है इस जीवन में! इसके बिना
मैत्री का भाव स्थिर बनना असंभव है। ® परमात्मा के अचिन्त्य अनुग्रह के लिए अंत:करण से प्रार्थना करते रहना...
यही एक सहारा है, दुनियादारी के जलते रेगिस्तान में जीने के लिए!
पत्र : १५
प्रिय मुमुक्षु,
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला।
पत्र लिखने में विलंब हो ही गया! तेरी शिकायत उचित है... मुझे पत्रलेखन में विलंब नहीं करना चाहिए, मैं मानता हूँ। अब मेरा यह प्रयत्न रहेगा कि विलंब न हो। पत्र लिखते-लिखते तेरी निर्दोष और स्नेह पूर्ण मुखाकृति मेरे सामने साकार बन जाती है, हृदय प्रसन्नता से भर जाता है।
तेरे सामने अपार पारिवारिक समस्याएँ हैं, फिर भी तू उदासीन भाव में अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा है और परमात्मतत्त्व के प्रति भक्तिपूर्ण बनता जा रहा है... यह जानकर मैं प्रसन्न हो गया। तेरी ज्ञानपूत सहनशीलता की कितनी सराहना करूँ? तेरा पत्र पढ़ते-पढ़ते मेरा मन तीव्र उद्वेग से भर गया था और 'घर छोड़कर मेरे पास चले आने का' लिखने की प्रबल इच्छा हो आयी थी, परन्तु मैंने सोचा कि इस प्रकार दुःख-भय से भागना उचित नहीं। इसमें बुद्धिमत्ता नहीं, ज्ञान का मार्ग नहीं। दुःखों से दूर भागने की इच्छा ही कमजोरी है। दुःखों को समताभाव से सहन करने में वीरता है। सचमुच तूने वीरता की मुझे प्रतीति करा ही दी!
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