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जिंदगी इम्तिहान लेती है लीनता आती? आज तू जिस प्रकार दर्दपूर्ण हृदय से और अश्रुपूर्ण नयनों से परमात्मा को पुकारता है, क्या यह संभव होता?
उसके प्रति घृणा नहीं, वैर नहीं, परन्तु निर्वैरभाव बनाए रखना है। भले मैत्री या स्नेह जागृत न हो, निर्वैरभाव जागृत कर ले। 'मुझे उसके प्रति कोई रोष नहीं है, शिकायत नहीं है, वह भी कर्माधीन मनुष्य है। वह कर्मप्रेरित होकर भूल कर रहा है, उसकी आत्मा का कोई दोष नहीं है। क्या मेरे पापकर्मों का उदय तो उसकी भूलों में निमित्त नहीं होगा? मेरे मन में उसके प्रति कोई वैरभावना नहीं चाहिए।' इस प्रकार की विचारधारा तेरे आत्मभाव को निर्मल बना देगी।
उस महासती अंजना का जीवनचरित्र तूने पढ़ा है न? बाईस-बाईस वर्ष तक पति पवनंजय का विरह सहन करने वाली उस अंजना के हृदय में पवनंजय के प्रति कोई रोष नहीं हुआ! पवनंजय के हृदय में अंजना के प्रति घोर घृणा थी, तिरस्कार था, परन्तु अंजना का हृदय निर्वैर था। अंजना भी मानव स्त्री थी न? वह भी संसारी नारी थी। संसार के वैषयिक सुखों की कामना से तो उसने पवनंजय से शादी की थी, यानी वह कोई विरक्त साध्वी नहीं थी। ऐसी राजकुमारी अंजना ने, उसका त्याग कर देने वाले पति के प्रति २२-२२ वर्ष तक कोई शिकायत नहीं की थी, कोई द्वेष नहीं किया था। __यह संभवित बात है, असंभवित बात नहीं है। ज्ञानदृष्टि खुलने पर यह संभव है। निर्वैरभाव की आराधना जीवन में अति आवश्यक है। जीवन में तप है, त्याग है, शील है, शास्त्रज्ञान है परन्तु निर्वैरभाव नहीं है तो भवसार में डूब जाएँगे। दुर्गतियों में चले जाएंगे। तप-त्याग और संयम हमें बचा नहीं सकेगा। दान-शील हमारी रक्षा नहीं कर सकेगा। उस समरादित्यकेवली चरित्र में अग्निशर्मा का पात्र आता है न? इतना उग्र तप करने वाला, इन्द्रियनिग्रह करनेवाला, अनेक व्रतनियम धारण करने वाला वह अग्निशर्मा क्यों भवसागर में डूब गया? वैरभाव ने उसको दुर्गति में पटक दिया। राजा गुणसेन के प्रति वैरभाव जागृत हो गया, गुणसेन को वह क्षमा नहीं दे सका, भटक गया संसार के बीहड़ जंगल में। __हाँ, अपनी कोई भूल नहीं है, सामने वाले की भूल है, फिर भी उसके प्रति वैरभाव नहीं रखना है। वैरभाव की भूल नहीं हो जाये, इस बात की प्रतिपल जागृति रहनी चाहिए | उसके प्रति भले प्रेम न हो, भले मैत्री न हो, परन्तु निर्वैरभाव तो चाहिए ही। अपराधी का हम हित नहीं कर सकें, चलेगा, अहित तो नहीं करें।
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