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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने रावण को परमात्मा का निष्काम भक्त बताया है। रावण निष्काम प्रेमी था परमात्मा का । रावण की अद्भुत परमात्मभक्ति से एक बार नागराज धरणेन्द्र रावण पर प्रसन्न हो गया था । धरणेन्द्र ने रावण को कहा : 'रावण! तेरी परमात्मभक्ति से मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हो गया हूँ, तू मुझसे कुछ माँग ले...जो तुझे चाहिए ! देव का दर्शन निष्फल नहीं जाता, मैं नागराज धरणेन्द्र हूँ।' रावण ने क्या कहा धरणेन्द्र को ? उसने कहा :
‘परमात्मभक्ति से आप का प्रसन्न होना स्वाभाविक है, चूँकि आप भी परमात्मभक्त हैं! एक भक्त को दूसरा भक्त प्यारा ही लगता है । परन्तु मुझे आप से कुछ भी नहीं चाहिए ! परमात्मभक्ति से मुझे जो मिलना था... मिल गया है, वह अपूर्व आनंद! मिल गई है, वह अद्भुत प्रसन्नता... नागराज! दूसरा क्या चाहिए?'
रावण की निष्काम भावना से धरणेन्द्र अत्यधिक खुश हो गया और रावण की बहुत प्रशंसा की । रावण का परमात्मप्रेम दिन-प्रति-दिन बढ़ता ही गया था। रावण सच्चा परमात्मप्रेमी था ।
तू कहेगा : परमात्मा के प्रति तो निष्काम प्रेम... कामनारहित प्रेम हो सकता है, परन्तु मनुष्यों के साथ निष्काम प्रेम करना असंभव सा लगता है ! कामनावालों के साथ कामनारहित प्रेम कैसे किया जाये ?
किया जा सकता है! निष्काम प्रेमी से निष्काम प्रेम करना तो सरल है! कामना वालों के साथ निष्काम प्रेम करना, विशेष बात है! किया था ऐसा प्रेम एक सन्नारी ने। मयणासुन्दरी ने कोढ़ी उंबर राना से । आचार्य श्री रत्नशेखरसूरिजी ने मयणासुन्दरी का पात्र निष्काम प्रेममूर्ति का ही पात्र बताया है । यदि उसका प्रेम निष्काम नहीं होता, तो वह प्रेम अखंड नहीं रहता, खंड-खंड होकर बिखर जाता। जब श्रीपाल दूसरी राजकन्याओं को पत्नियाँ बना कर ले आया था, उस समय मयणा सुन्दरी का प्रेम हवा बन कर उड़ जाता आकाश में। ईर्ष्या, द्वेष और तिरस्कार से भर जाती मयणा । यदि मयणा का श्रीपाल के प्रति प्रेम विशुद्ध नहीं होता, तो जब श्रीपाल परदेश में था उस समय उसके लिए मयणा सदैव शुभकामनाएँ नहीं करती। उसकी सुख-शांति के लिए प्रार्थना नहीं करती। श्रीपाल के प्रति मयणा का प्रेम बढ़ता ही गया है। इसका अर्थ यह है कि निष्काम प्रेम हो सकता है।
निष्काम प्रेम का दूसरा एक पहलू है । इहलौकिक सुख-वैभव या कीर्ति
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