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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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माता अपने बच्चे से प्रेम करती है, परंतु प्रेम का स्वरूप नहीं जानती है। पत्नी अपने पति से प्रेम करती है, परंतु प्रेम का स्वरूप नहीं जानती है । बहन अपने भाई से प्यार करती है, परंतु वह प्रेम का स्वरूप नहीं जानती है। इसलिए प्रेम सच्चा होता नहीं, हो जाता है तो दीर्घकाल टिकता नहीं! टिकता है तो बढ़ता नहीं। अरे धर्मगुरु अपने शिष्यों से, अपने अनुयायियों से प्रेम करते हैं... वैसे शिष्य और अनुयायी धर्मगुरु से प्रेम करते हैं - परंतु यदि वे प्रेम का सही स्वरूप नहीं जानते हैं, तो प्रेम, प्रेम नहीं रह जाता । प्रेम का स्वरूप ही विकृत हो जाता है।
हम लोगों ने प्रेम का स्वरूप समझने की और समझाने की कोई चेष्टा ही नहीं की। दूसरों का प्रेम चाहते हैं और दूसरों से प्रेम करते हैं जरूर, परंतु 'प्रेम' कैसा होता है ? प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है ? जानने की जिज्ञासा तक पैदा नहीं होती है। ऐसी है मूढ़ता हमारी । प्रेम का वास्तविक स्वरूप समझना होगा और दूसरों को समझाना होगा। तभी प्रेम का अमृत हमारी मृतप्राय अन्तःचेतना को नव-जीवन प्रदान करेगा। हमारी दृष्टि निर्मल और स्निग्ध बनेगी। हमारी वाणी सुधारस की वृष्टि करेगी। हमारे प्रेम के मानसरोवर में हजारों आत्महंस निर्भय और निश्चित बनकर तैरते रहेंगे, स्वच्छंद क्रीड़ा करेंगे। अपूर्व आनंद पाएँगे ।
प्रेम की परिभाषा मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आई, नारद के भक्तिसूत्र की । इतनी बुद्धिगम्य, तर्कगम्य और हृदयस्पर्शी परिभाषा की गई है कि मेरी बुद्धि संतुष्ट हो गई है । मेरा हृदय नृत्य करने लगा है। मुझे ताज्जुब तो यह होता है कि सैंकड़ों वर्ष पूर्व एक ऋषि-मुनि ने 'प्रेम' की इतनी स्पष्ट परिभाषा गहराई में जाकर की है। कितना गहन चिन्तन-मनन किया होगा उस अवधूत योगी ने ।
आजकल तो ऐसा दिखने में आता है कि अपने आपको विरक्त और वैरागी मानने वाले, त्यागी और तपस्वी मानने वाले लोग 'प्रेम' शब्द से ही भड़कते हैं। हाँ, ऐसे लोग दूसरों का प्रेम चाहते हैं, परंतु दूसरे मनुष्यों को प्रेम देने में पाप मानते हैं। शिष्यों का, भक्तों का प्रेम वे चाहते हैं, उसमें वे लोग पाप नहीं मानते! बेचारे ये लोग प्रेम का स्वरूप ही नहीं समझ पाए हैं । राग को प्रेम समझ लिया है, प्रेम को राग समझ लिया है ।
नारद के भक्तिसूत्र में प्रेम की काफी स्पष्ट परिभाषा मेरे सामने आई, मैं क्या बताऊँ, मेरा रोम-रोम विकस्वर हो गया था। मुझे ऐसा ही लगा जैसे यह जिनवचन ही हो। जैसे भगवान महावीर की ही वाणी हो!
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