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जिंदगी इम्तिहान लेती है किसी न किसी इच्छा-अभिलाषा को लेकर प्रेम कर रहा है दूसरों से | मानता है कि 'मैं प्रेम करता हूँ,' वास्तव में वह प्रेम नहीं होता, स्वार्थसाधकता होती है। प्रेम का दिखावा मात्र होता है। ___ हमको अपने स्वयं का अन्तर्निरीक्षण करना होगा। 'प्रेम' की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हम, कहाँ भटक रहे हैं? कैसी घोर भ्रमणाओं से भ्रमित हो रहे हैं? बोतल पर 'लेबल' है, अमृत का और पी रहे हैं, हलाहल विष | मानते हैं कि प्रेम कर रहे हैं - और करते हैं, इच्छाओं की पूर्ति की साधना! __ जिससे हमारी इच्छाएँ पूर्ण न होती हों क्या हम उनमें प्रेम करते हैं? जिसमें गुण नहीं, दोष दिखते हों- क्या उससे हम प्रेम करते हैं?
माता का अपने बच्चों से जो प्रेम होता है, उसे 'प्रेम' इसलिए कहा गया है चूंकि बच्चे से उसकी कोई कामना पूर्ण न होती हो, फिर भी माता का प्रेम उसको मिलता रहे | इससे बच्चे के दोष दूर होते हैं । दोष देखकर माता घृणा करने लग जाये तो बच्चे में दोष ज़्यादा बढ़ते जाएँगे। बच्चा आवारा बन जाएगा। बच्चा प्रेम से जल्दी समझ जाएगा। घृणा से, तिरस्कार से अथवा ताड़ना से वह नहीं समझेगा, नहीं सुधरेगा। कभी भय से भले वह गलती नहीं करेगा, परंतु उसका गलती करने का मन नहीं सुधरेगा। प्रेम से - गुणरहित और कामनारहित प्रेम से उसका मानस-परिवर्तन हो जाएगा।
वैसे ही पत्नी का प्रेम | पति के प्रति उसका प्रेम गुणरहित और कामनारहित होगा, तो ही, वही पत्नी, पति की धर्मपत्नी-सहधर्मिणी बन कर, प्रेम की देवी बन सकेगी। किसी का भी, किसी के भी प्रति प्रेम यदि गुणरहित और कामनारहित होगा, तो ही वह प्रेम सच्चा प्रेम, दिव्य प्रेम कहलाएगा।
अन्यथा वह मात्र मोह वासना ही बनी रहेगी।
प्रिय मुमुक्षु! 'कामनारहित' प्रेम का विशेष गम्भीर चिन्तन मैं आगे पत्र में लिलूँगा। मन तो करता है, लिखता ही चलूँ.. परंतु समय के बंधन में जकड़ा हुआ हूँ| कालातीत और क्षेत्रातीत कब बनूंगा..? नहीं जानता हूँ | परमानंद और परम-प्रेम की अनंत अनुभूति तो तभी हो सकेगी। यहाँ प्रसन्नता है। तेरी चित्त प्रसन्नता सदैव बनी रहे - यही मंगल कामना - ३ अगस्त, १९७६
- प्रियदर्शन
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