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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१७ ® जरा अपने बंधे-बंधाये सीमित दायरों की दकियानूसी से बाहर आकर
देखो! जिन्दगी को इतनी छोटी, इतनी छिछली बनाकर मत जियो। ® जब तक मोह एवं अज्ञान के आवरण से आत्मा आवृत है, तब तक दु:खों
का अंत कहाँ? Bएक ही व्यक्ति के खातिर या दो चार लोगों की खातिर जीना और बात है...
जबकि जिनका कोई नहीं है, उन सबके होकर जीना दूसरी बात है! ॐ सूरज की किरणें भी जिन्हें छूने से कतराती है, ऐसे खंडहरों में दीप जलाना
भी तो जरूरी है! ® जहाँ फूल खिलने से पहले ही कली मुरझा जाती है... ऐसे में भी उपवन
लगाना होगा! वह भी खिला-खिला उपवन!
पत्र : ५
प्रिय गुमुक्षु!
धर्मलाभ, तेरा पत्र पढ़ा। मुझे ऐसी ही अनुभूति हो रही थी कि तू ऐसा ही कुछ लिखेगा... मेरी अनुभूति सच सिद्ध हुई इसलिए आनंद हुआ।
तू तेरे सुख के लिए, तेरे विकास के लिए... ऐसा व्यक्ति, ऐसा पात्र खोज रहा है... जिसके संयोग में तुझे सुख, आनंद और प्रसन्नता प्राप्त हो! तेरा मनचाहा विकास हो! तेरी यह भी भावना है कि उस व्यक्ति को भी तेरे साथ सुख-आनंद और प्रसन्नता मिले। ___ खैर, मेरी भी यही कामना है कि तू सुखी बने, तू प्रसन्न रहे और तेरी उन्नति हो! परन्तु इतने मात्र से मुझे जीवन की यथार्थता प्रतीत नहीं होती। ऐसी इच्छा स्वयं सुखी होने की इच्छा-दो तीन स्वजनों को सुखी करने की इच्छा-कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती! ऐसी इच्छा तो पशुओं में भी दिखाई देती है।
तू क्या तेरा प्रेम, तेरा स्नेह, तेरी करुणा... सब कुछ एक या दो व्यक्ति को ही दे देगा? क्या तू तेरी व्यथा को... तेरी ही पीड़ा को देखेगा? किसी दीनदरिद्र की झोपड़ी में बिलखते बच्चों को नहीं देखेगा? है कहीं कोई उसका
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