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जिंदगी इम्तिहान लेती है
जरा सुन ले भीतर की चीत्कार को| तू जब तक चिल्लाता रहेगा, भीतर की चीत्कार तू नहीं सुन सकेगा, रुक जा, चिल्लाना बंद कर | सुन, स्थिर बनकर सुन... अपने भीतर से उठती आवाज को! ___ 'ओ पुरुष, मुझे क्यों भूल गया... मुझे जान ले... मुझे देख ले... मैं ही तेरी वल्लभा हूँ... चेतना हूँ... शाश्वत सहचरी हूँ... मुझे छोड़कर तू कहाँ भटक रहा है... तुझे क्या चाहिए? आ, मेरे पास आ, तुझे मैं प्रेम दूंगी, स्नेह दूँगी.. मैं ही तुम्हारी हूँ... तुम्हारी प्रकृति हूँ। तुम्हारी मुक्ति यहाँ है... तुम्हारी पूर्णता यहाँ है...!'
सुनी है आवाज भीतर की? पाना है, जो भीतर है उसको? आत्मा की पुकार आत्मा नहीं सुन रही है। जड़ इन्द्रियों की पुकारें सुनने में... इन्द्रियों को तृप्त करने में और इन्द्रियों की माया-ममता में 'पुरुष' खो गया है।
आत्मभाव के आलोक में कभी भी तू अपने आपको देखना। आत्मपरिणति के प्रकाश में तू तेरी इच्छाओं को देखना। वे इच्छाएँ सम्यक हैं या मिथ्या हैं, स्पष्ट दिखाई देगा।
आज ज़्यादा नहीं लिखता हूँ। कई तीर्थ यात्रीक यहाँ आए हैं... उनके आत्मभावों को भी टटोलना है। इस पत्र के बारे में तेरी प्रतिक्रिया मुझे अवश्य लिखना।
अगासी (महाराष्ट्र) जय वीतराग!
- प्रियदर्शन
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