Book Title: Jambudwip Pragnaptisutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे भीवः 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तः, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ! गौतम ! 'तेसिं' तेपां दक्षिणार्द्ध विजयोत्पन्नानां 'ण' खलु 'मणुयाणं' मनुजानां 'छबिहे' पइविधं 'संघयण' संहननम्-अस्थिसंचयः तत् 'पविधं-वज्रऋपभनाराच १ ऋषभनाराच २ नाराच ३ अर्द्धनाराच ४ कीलिका ५ सेवात ६ भेदात् 'जाव' यावत्-अत्र यावत्पदेन 'छबिहे संठाणे पंचवणुसयाई उद्धं उच्चेतेणं जहण्णेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं पुचकोडीआउयं पालेंति पालेत्ता अप्पेगइया णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिन्यायति' इति साह्यम् एनच्छाया-'पड़. विधं संस्थान पश्चधनुः शतानि ऊर्ध्वगुच्चत्वेन जघन्येन अन्तर्मुहर्त्तम् उत्कर्पण पूर्वकोटयायुः पायलन्ति पालयित्वा अप्येकके निरयगामिनः यावत् अप्येकके सिद्धयन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति' इति 'सव्वदुक्खाणमंत' सर्वदुक्खानामन्तं 'करेंति' कुर्वन्ति एपां व्याख्या प्रकार का आयारभावपडोयारे' आकारभाव प्रत्यवतार आकार माने स्वरूप भाव-अन्तर्गत भाव अर्थात् संहननादि पदार्थ उन दोनों के साथ प्रत्यवतारप्रादुर्भाव 'पण्णत्ते ?' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'तेसिं' उस दक्षिणाई विजय में उत्पन्न हुए 'णं मणुयाणां' मनुष्यों के 'छबिहे' छह प्रकार का 'संवयणे' संहनन अर्थात् अस्थिसंचय-वह छप्रकार वज्रऋषभनाराच१, ऋषभनाराचर, नाराच३, अर्द्धनारणं ४, कीलिका ५, सेवात ६, के भद से हैं 'जाव' यावत् यहां यावत्पद से 'छविहे संठाणे पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्ते णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोलेणं पुन्चकोडी आउथं पालेंति पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगइया लिझंति बुझंति मुञ्चति परिणिन्यायंति' इन पदों का संग्रह हुवा है। इस का अर्थ इस प्रकार है-छ प्रकार का संस्थान है, पांचसो धनुष के ऊंचे है, जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट से पूर्वकोटि की आयुवाले हैं आयु के क्षय होने पर कितनेक मोक्षगामी होते हैं यावतू कितनेक सिद्ध, वुद्ध एवं मुक्त होते हुए परिनिर्वाण को प्राप्न कर के 'सव्व दुःखाणमंतं यारे मा२ मा भने प्रत्यक्ता२ अर्थात् मा४२ मे २१३५ मार गट मतगत मा अर्थात् सहनना पहा प्रत्यवतार-प्रादुर्भाव 'पण्णत्ते' ४उस छ ? २मा प्रश्नना Vाममा प्रभुश्री ४३ --'गोयमा !' गौतम ! 'तेसिं' थे क्षिा नियमा अत्पन्न थयेसा 'णं मणुयाणं' भनुष्याना 'छबिहे' ७ प्रारना 'संघयणे सहनन अर्थात् मस्थि સંચય છે. તે છ પ્રકાર આ પ્રમાણે છે-વાત્રકષભનારા ૧, બાષભનારાગ ૨, નારાચ ૩, मनाराय ४, सिप, सेवात ४ना मेथी छ. 'जाव' यावत् माडी यां यावत्पथी 'छबिहे संठाणे पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेंण जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी आउयं पालेति पालेत्ता अप्पेगया निरयगामी जाव अप्पेगईया सिझंति, मुच्चंत्ति, परिणिब्वायति' मा पहने। સંગ્રહ થયેલ છે. આને અર્થ આ પ્રમાણે છે-છ પ્રકારના સંસ્થાન છે. પાંચસે ધનુષ જેટલા ઉંચા છે. જઘન્યથી અન્તર્મુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વ કેટિનું આયુષ્ય છે. આયુનો