Book Title: Jambudwip Pragnaptisutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 710
________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०१ इत्यादि सेवा-धर्मसत्यापनार्थं न तु वैरिनिग्रहार्थ, तत्र वैरिणामभावात् केचन वज्रपाणयः केचनशूलपाणयः प्राञ्जलिकृताः सन्तः सन्तिष्ठन्ते इति, अत्र यावत्पदात् चित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवश विसर्पद् हृदयाः, इति ग्राह्यम् ‘एवं विजयानुसारेण जाव' एवम् उक्तप्रकारेण अभिषेकसूत्रं विजयदेव्य देवाभिषेकसूत्रानुसारेण ज्ञातव्यम् जीवाभिगमवत् अत्र यावत्पदात् 'अप्पेगइया पंडगवणं णचोअगं णाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्यं सुरहिगंधोदकवासं वासंति अप्पेगइया निहयरयं णहरयं भट्टरयं पसंतरयं उत्रसंतरयं करेंति' इति ग्राह्यम् अप्येककाः केचन देवाः पण्डकवनम्-अत्र नैरन्तये द्वितीया निरन्तरं पण्डकवने इत्यर्थः नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथास्यात् तथा प्रविरल प्रस्पृष्टम् प्रकर्षण धारण करने की बात कही गई है वह केवल सेवा धर्मको प्रकट करने के लिये ही कही गई है वैरिजन के निग्रह के निमित्त नहीं क्यों कि वहां उनका कोई वैरी ही नहीं था यहां यावताद से 'चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पहृदयाः' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'एवं विजयानुसारेण जाव अप्पेगइया देवा आलिअ संबज्जिवलित्तसित्तसुइसम्मट्ट रत्यंतरावणवीहिअं करेंति जाव गंधवधिभूअंति' जीवाभिगम सूत्र में जिस प्रकार विजयदेव के अभिषेक प्रकरण में अभिषेक सूत्र कहा गया है, उसी तरह से यहां पर भी अभिषेक सूत्र जानना चाहिये यहां यावत्पद से 'अप्पेगइया, पंडगवणं णच्चो अगं, णाइमटिअं, पविरलपकुसियं रयरेणुविणासणं, दिव्वं सुरहिगंधोदकवासं वासंति, अप्पेगइया निहयरयं णहरयं, भट्टरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति' इस पाठका संग्रह हुआ है इसकी व्याख्या पहिले जैसी ही है वाक्य योजना इस प्रकार से है अपिशब्द यहां स्वीकारोक्ति के अर्थ में है 'एगइया' शब्द का अर्थ હતા. અહીં જે આ ધારણ કરવાની વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે તે ફક્ત સેવાધર્મને પ્રકટ કરવા માટે કહેવામાં આવી છે. વૈરીઓના ઉપશમન માટે એમણે શસ્ત્રો ધારણ કર્યા नथी. म त स्थान ५२ तमना वैरी ! or नहि. मी यावत् ५४थी. चित्ता नंदित्ताः, प्रीतिमनसः, परमसौमवस्थिताः हर्पशविसर्पदया' पहनु अडए थयु छ. 'एवं विजयानुसारेण नाव अप्पेगइया देवा आसिअ संमज्जिओबलित्तसित्त सुइ सम्मट्ठ रत्थंतरावणवीहिसं करें ति जाव गन्धवट्टि भूअंति' निगम सूत्रमा प्रमाणे विशय वना मनिष પ્રકરણમાં અભિષેક સૂત્ર કહેવામાં આવેલ છે, તે પ્રમાણે અહીં પણ અભિષેક સૂત્ર જાણવું જોઈએ. माही यावत् ५४थी 'अपेगइया पंडगवणं, णच्चोअगं, णाइमट्टिअं, पविरलपप्फुसिय रयरेणुविणासणं दिव्यं सुरहि गंधोदकवास वासंति, अप्पेगइया नियरय णदुरयं, भट्टरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति' मा पास थयो छे. पाठ्य या मा प्रभारी छ. 'अपि' श६ मडी वीतिना भाभा अपात या छ. 'एगइया' शहन म '८८४ हे। मे। थाय छे. मा દેવાએ તે પહક વનમાં સુરભિ ગંદકની વર્ષા કરી. આ વર્ષોથી ત્યાં અતિ કાદવ થાય

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