Book Title: Jambudwip Pragnaptisutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 742
________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३६ वासइ' शुश्रूपमाणो यावत्पर्युपास्ते सोऽच्युतेन्द्रः, अत्र यावत् पदात् 'नसंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' नमस्यन् त्रिविषया पर्युपासनयेति अशावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लाघवादाह 'एवं जहा' इत्यादि 'एवं जहा अच्चुयरस तहा जाब ईसाणस्य वाणियब्वं' एवम् उक्तविधिना यशऽच्युतेन्द्रस्याभिषेककृत्यं तथा यावत् ईशानेन्द्रस्यापि. अभिषेककृत्यं भणितव्यम् ___ अत्र यावत्पदात् प्राणतेन्द्र सनत्कुमादारभ्य ईवानेन्द्र पर्यन्तस्य ग्रहणम् शक्राभिषेकस्य सर्वत श्वरमत्वात् 'एवं भवणवइनाणमंतरजोइसिआ य सरपज्जपसाणा सएणं परिवारेणं पत्तेअं पत्तेयं असिसिंचई एक्स् उत्तप्रकारेण भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राश्च सूर्यपर्यवसानाः स्वकेन परिवारेण सह प्रत्येकमभिषिञ्चन्ति, अभिषेकं कुर्वन्ति, अथावशिष्टशवेन्द्रत्पद से नसमाणे तिविहाए पज्जुवालणाए' इल पाठका ग्रहण हुआ है । यहां जितने ये विशेषण बालक अवस्थाएन ऋषभकुमार में प्रदर्शित किये हैं वे भव्य पथको छोडकर "माविनिभूतवतू' इस कथन के अनुसार यद्यपि उनमें आगे ऐसी अवस्था होनेवाली है वर्तमान में यह अवस्था नहीं हैं फिर भी उसकी अभिव्यक्ति हो चुकी है ऐसा मानकर उपचार-कर उनकी सार्थकता समझलेनी चाहिये अतः इस प्रकार के कथल में कोई विरोध नहीं है भावी पर्याय को भ्रत पर्याय मानकर लोकमें भी कथलव्यवहार देखा जाता है इस सूत्र में जो नमोऽस्तुपद दो बार प्रकट किया गया है वह पुनरुक्ति दोषावह नहीं हैं प्रत्युत लाघव प्रकट करता है क्योंकि हरि-इन्द्र ने यहां जितने विशेषण प्रयुक्त किये हैं उनकेसबके साथ इस पदका प्रयोग उसे करना इष्ट है, क्योंकि उसके हृदय में भक्ति का प्रवाह उमड रहा है सो ऐलान करके जो दो बार ही नमोऽस्तु पदका प्रयोग उसने किया है वह लाघव के निमित सिद्ध हो जाता है यहां जो सात ५पासना १२ सम्यो. ही यावत् ५४थी 'नमंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' मा पा8 સંગૃહીત થયેલ છે. અહીં જેટલાં વિશેષણે બાલક અવસ્થાપન કૃષભકુમાર માટે પ્રદર્શિત ४२वामां आवसा छ ते मन्य पढ़ने ४ ४शन १. 'भाविनिभूतवत्' मा ४थन भुगमन કે આગળ તેઓશ્રી એવી અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે પણ વર્તમાનમાં આ અવસ્થા નથી છતાએ, તેની અભિવ્યક્તિ થઈ ચૂકી છે. એવું માનીને–ઉપચાર કરીને એમની સાર્થકતા સમજી લેવી જોઈએ. એટલા માટે આ પ્રકારના કથનમાં કઈ પણ જાતનો વિરોધ નથી. ભાવી પર્યાને ભૂત પર્યાય માનીને લેકમાં પણ કથન-ઝવહાર જોવામાં આવે છે. આ સૂત્રમાં २ 'नमोऽस्तु' ५६ मे पार माव्यु छ तेथी मत्रे पुनरुति होष थय। छे, माम मान નહિ, પરંતુ અહીં તે લાઘવ પ્રકટ કરે છે. કેમકે હરિ-ઈજે અહીં જેટલાં વિશેષણ પ્રયુક્ત કર્યા છે તે બધાની સાથે એ પદને પ્રવેગ ઈષ્ટ છે, કેમકે તેના હૃદયમાં ભકિત પ્રવાહ ઉછળી રહ્યો છે. તે આવું ન કરીને તેણે બે વાર “નનોડતુ પદને પ્રયોગ કર્યો છે તે લાઘવ નિમિત્તે જ કર્યો છે એવું સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં જે સાત-આઠ ડગલા

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