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ROICCCCCCCCCCCCCCCCCEEEEEEEEEE संस्कृत कवियों की आत्महष्टि
ले. डॉ. राजेंद्रसिंह
इलाहाबाद यू. पी. DOCCCCCCCCCCCCCCCCOCOCCOOCCES
भारतीय-दर्शन के चूडान्त-सिद्धान्तों ने अभ्युदयोन्मुखी परिणति२ । यदि बुद्ध-चरित, चिरकाल से ही न केवल निवृत्तिमार्गी मुमु- शङ्करदिग्विजय एवं कफिकणाभ्युदय का लक्ष्य क्षुओं को बल्कि प्रवृत्तिमार्गी, व्यवहार-शिक्षक बौद्ध, वेदान्त (सनातन) एवं जैन धर्म का कविजनों को भी प्रभावित किया है। काव्य अभ्युदय निरूपित करना है, तो रघुवंश, कान्ता -सम्मित-सदुपदेश का एक विलक्षण किरात, शिशुपालवधादि का लक्ष्य अर्थ-निरुस्रोत? है । प्रभुसम्मित वेदशास्त्रोपदेश की पण है । इसी प्रकार गीतगोविन्द, कुमार भांति न तो काव्य में अवश्यकरणीयता होती सम्भवं एवं नैषध आदि का लक्ष्य कामहै और नही मित्र सम्मित नीतिशास्त्रोपदेश निरूपण है। की भांति उसमें आदान-विकल्प होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पुरुषार्थ-विशेष काव्य की सम्प्रेषणीयता तो प्रियालपन के का परिपाक होने के कारण प्रत्येक काव्य की समान निसर्ग मधुर होती है।
वर्ण्य-वर्णन-सीमा भी सुनिश्चित हो जाती प्रायः अधिकांश काव्यों का प्रतिपाद्य है । कामाश्रयी काव्य में निश्चय ही भोगैकोई न कोई प्रख्यात अथवा कल्पित लोकवृत्त ३वर्य' अथवा जागतिक रस-रंग का प्रत्यक्ष होता है । दशरुपक एवं उपरूपकादि अभि- तिरस्कार नहीं किया जा सकता है और न नेय काव्यों में तथा मुक्तक, प्रबन्धादि श्रव्य ही धर्माश्रयी काव्य में सांसारिकता का समकाव्यों में काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कथानक भेद र्थन ! परन्तु इन सहज लक्ष्मण-रेखाओं में होते हुए भी एक समरुपता सर्वत्र दृष्टिगोचर - होती है, और वह है प्रत्येक काव्य में किसी
२. ननु काव्येन क्रियते
सरसानामवगमश्चतुर्व गें। एक पुरुषार्थ का सोङ्गोपाङ्ग चित्रण, उसकी
लघु मृदु च नीरसेभ्यस्ते संकेत :
हि त्रस्यन्ति शास्त्रेभ्यः ॥ सद्रटालंकारः १. काव्य यशसेऽर्थ कृते
धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः । व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।
काव्यबन्धोऽभिजाताना, सद्यः परनिवृतये
हृदयाहूलादकारकः ।। वक्रोक्तिजीवितम् कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥
चतुर्वग फलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि । काव्यप्रकाशः, प्र० उल्लासः ।
काव्यादेव । साहित्यदर्पणः
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