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कह कर बतलाया गया है कि इन स्कन्धों से वेदना और तृष्णा, जो पुद्गल रुप है, ६ भिन्न कोई अन्य सूक्ष्म तत्त्व नहीं है, जिसे उन्हे आत्मा नहीं मानता है। लेकिन जैन आत्मा कहा जा सके। जिसे ज्ञान हो या दर्शन से बौद्ध दर्शन इस अर्थ मे भिन्न है जो निर्वाण प्राप्त करता हो ऐसे शाश्वत तत्त्व कि वह इनसे भिन्न आत्मा की कल्पना ही के विषय मे पालि त्रिपिटक में कोई सकेत नहीं करता है, जब कि जैन दर्शन एक ऐसे नहीं है। महावग्ग के अनत्तलक्खण सुत्त के आत्म तत्त्वकी कल्पना करता है जो उपयोग अतिरिक्त अभिधम्मपिटक के कथावत्थु २ में स्वरुप तथा उत्पाद, व्यय और धौव्य रुप, भी इसी प्रकार अनन्ता की व्याख्या की गई द्रव्य हैं। है । आत्मा के शाश्वत स्वरुप के विषय में हीनयान बौद्ध दर्शन में वसुबन्धु ने भगवान बुद्ध सर्वत्र मौन ही परिलक्षित होते स्पष्ट कहा है कि पंचस्कंधों को छोडकर है।३ इस मौन से ऐसा प्रतीत नही होता आत्मा नामक कोई तत्त्व नहीं है ।। है कि उनका अभिप्राय शाश्वत आत्मा को महायान दर्शन में भी ज्ञानप्रवाह को स्वीकार करना है। उनके इस कथन का आत्मा कहा है और नित्यआत्मा के होने का आधार इससे आगे आत्मा को वेदना धर्म निबंध किया गया है। दिनाग जैसे वाला बतलाना हैं।४ स्पष्ट है कि शाश्वत आचार्यो २ ने आत्मा और अनात्मा को वाद में मान्य आत्मा की दृष्टि से बौद्ध दर्शन संज्ञा मात्र कहकर उनकी पारमार्थिक सत्ता का चिन्तन अनात्मवाद के नाम से प्रसिद्ध न होने का उल्लेख किया है । महायान हुआ जिसमें क्षणिक सवेदनाओं से पृथक दर्शन में अनात्मवाद या नैरात्म्यवाद का किसी नित्य आत्मा को मान्य नहीं किया अभिप्राय, आत्मा का उच्छेद नहीं है । इस गया है । दीर्घ निकाय में सीलकखन्धवग्ग के कथन की पृष्टि महायान सूत्र३ और लंकाब्रजीलसुत्र और मज्झिमनिकाय के मूलपण्णास- वतार४ में आये हुए प्रसंगो से हो जाती है । कसुत्र का अभिप्राय यही है कि आत्मा स्कन्ध. फिर भी आत्मा को शाश्वत न मान कर सधात से भिन्न नही है। जैसा कि हम शरीर घटक धातुओं का समुच्चय कहते है। देखेंगे कि बौद्ध दर्शन (पालि-त्रिपिटक) जैन नागार्जुन ने तत्त्वमात्र को सत् असत् उभय दर्शन की भॉति इन्द्रिय, विषय, मन, विज्ञान, और अनुभयात्मक कोटियों से विनिमुक्त कह १. अभिधम्म पिटक, ११/११२
६. कुन्दकुन्द. समयसार, ३९-५५
१. नात्मास्त्रि स्कन्धमात्र तु कम इलेभि२. दीघनिकाय, महावग्ग, २/१
संस्कृतम् । अभिधम कोश ३-१८ ३. मज्झिम निकाय मूलपण्णासक, २. (क) प्रज्ञापारमिता, पिण्डार्थः पू० (ख) ___३५/३/५-२४
लं कावतार सूत्र १०-४२८ ४. मज्झिमनिकाय १/२२/३४ ।।
३. महायानसूत्र, पृ० १०३ ५. मज्झिमनिकाय, उपरिपण्णासक २/२/१.६ ४. लकावतार, २-९९, २-६
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