Book Title: Jambudwip Part 03
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 177
________________ को नष्ट नहीं करता, भले ही प्रभावित अवश्य (ज) राजवार्तिककार आ० अकलंक जहां करता हो । अस्तु, शास्त्रों में जो पृथ्वी का भरतादि में क्षेत्रगत वृद्धि-हास का न निरुनिरूपण है, वह मूल रुप का ही है । काल- पण करते हैं, वह भरतादि क्षेत्र की 'नियगत सामयिक वृद्धि-हास होने पर भी मूल तावधिकता' को लक्ष्य में रख कर है, न की अ-वृद्धि-अ-हानि को देखते हुए, भरतादि कि सामान्य परिवर्तन को लक्ष्य कर । क्षेत्र में अपरिवर्तनीयता का निरूपण पूर्णतः संगत होता है । भरतादि क्षेत्रों में परिव यहां, यह शंका की जा सकती है कि तन असम्भव मानने के निरूपण को उसी आगमों में जो सर्वज्ञ तीर्थकर की वाणी है, प्रकार समझना चाहिए जैसा कि आत्मा को इस भावी भौगोलिक-परिवर्तनों का संकेत अबद्ध व अस्पृष्ट मानना, जबाक कमबन्ध क्यों नहीं किया गया ? आज विज्ञान जिस की प्रक्रिया का शास्त्रों में विस्तार से निस- प्रकार प्रमाण सहित यह बताने में सक्षम हैं पण भी मिलता हो । कि इतने वर्षों पूर्व', 'अमुक-अमुक क्षेनीय वस्तुतः, पृथ्वी में परिवर्तन व अपरि- परिवर्तन हुए है, किसी तीर्थकर ने अपने वर्तन-ये दो कथन अनेकान्तात्मक प्रवचन अतीत या भावी परिवर्तनों का संकेत क्यों (समग्र) के दो अंश (भाग) हैं। सर्वज्ञ नहीं किया ? इसका सीधा-सा समाधान वचन तो उभय-नयात्मक है। एक तरफ यह है कि आगमों में उक्त परिवर्तन के भरतादिक्षेत्रों के पर्वतादि का आकार परिमाण मौलिक-सिद्धान्तों का निरुपण यत्र-तत्रनियत कर दिए गए हैं, दूसरी तरफ, उत्पा- सर्वत्र हुआ है। दूसरी बात, अनन्त दव्यात्मक पौद्गलिक-परिवर्तन का भी पदार्थों के अनन्त धर्मों में से कुछ का ही शास्त्रों में निरुपण है, साथ ही उत्सर्पिणी कथन सम्भव होता है । प्रज्ञापनीय-पदार्थों आदि काल-चक्रानुरुप क्षेत्रीय-परिवर्तन का में से भी अनन्तवां भाग 'श्रत' आगमों में मी संकेत है । व्याख्यातां को चाहिए कि निबद्ध हो पाता है । समस्त-श्रुत वह दोनों प्रवचनैकदेशों में परस्पर-बाधकता का बहुत थोड़ा सा भाग अब सुरक्षित रह उद्भावित न करे, बल्कि समन्वय का प्रयास गया है । कई विषयों के उपदेश भी विच्छिन्न करे', ब-शर्ते प्रत्यक्षादि-प्रतीति से विरोध न हो गए हैं जिसका संकेत भी जैन शास्त्रका. हो । प्रायः इसी भाव को आचार्य विद्या रोने यत्रतत्र दिया हैं । २ सम्भव हैं, दृष्टिनन्दि ने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में व्यक्त किया है । १ ४. तत एवं सूत्रद्वयेन भरतैरवतयोस्तदपर २. इमौ घृद्धि-हासौ, कस्य, भरतैरावतयोः । भुमिषु च स्थितेर्भ दस्य वृद्धिहासयोगा ननु क्षेत्र व्यवस्थितावधिके, कथ तयोयोगाभ्यां विहितस्य कथन न बाध्यते वृद्धिहासौ ? अतः उत्तरं पठति(त. सु.–३/२८ पर श्लोकवार्तिक, खण्ड तास्थ्यात् ताच्छब्दयसिद्धिभरतैरावतयो-५, पृ. ३४८-४९)। वृद्धिहासयोगः (राजवार्तिक, ३/२४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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