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मातपसोऽभ्यजायत । ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः ॥
समुद्रादर्ण वादधि
संक्रो अजायत ।
अहोरात्राणि विदध
विश्वस्य मिषतो वशी ॥ सूर्याचन्द्रमसौ धाता
यथापूर्व 'मकल्पयत् । दिव ं च पृथिवीं
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चान्तरिक्षमयो स्वः ||१०/१९०/१-३॥ उक्त संदर्भों से स्पष्ट है कि परमात्मा ही सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है । वह यदि आदि - पुरुष है तो वह ही आदि प्रकृति भी है।
1 वह एक महानतम विश्वकर्मा है जो इस जगत का पिता, आधार, रचयिता व खामी है ।
विश्वतश्चक्षु, विश्वतोमुख, विश्वतोबाहु एवं विश्वतस्पाद के रूप में उसने निराकार को साकार किया है तथा द्यौं एवं पृथिवी लोक को उपजाया है :
किं स्विदासीदधिष्ठान - मारम्भ' कतमस्वित्कयासीत् । तो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा विद्यामौर्णोन्महिना विश्वचक्षाः || faranand विश्वतोमुखो faraniबाहुरुत विश्वतस्पाद् । साहुभ्यां धमति सं
पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः || १० /
८१/२-३ ॥
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इसी बात को पुरुष सूक्त कुछ अधिक में प्रस्तुत
रूप
स्पष्ट किन्तु काव्यमय करता है ।
वहां परमात्मा के मायोपाधिक विराट स्वरुप की चर्चा उसके हजार (अनन्त) शीषों, हजार आंखों, एवं हजार पैरों वाले पुरुष के रुप में की गयी है ।
यह कहा गया है कि पूरा विश्व अंडाकार गोल है और यह उसे चारों ओर से घेरे हुए है :
सहस्रशीर्षा पुरुषः
सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
भूमिं विश्वतो धृत्वा त्वष्ठद्दशांगुलम् ॥ १०/७०/१॥ ऐसा कहा गया है कि इस विराट पुरुष के तीन चरण सूक्ष्म एवं प्रकाशमय हैं, केवल एक चरण ही यह स्थूल नश्वर प्रकृति हैं ।
वह ब्रह्माण्ड में संवत्सर यज्ञ करता है । इस यज्ञ का वृत वसन्त ऋतु हैं, ईंधन प्रीष्म एवं हवि शरद ऋतु है ।
इस प्रकार वह -
सब ऋतुओं और उसके माध्यम से कालरूप संवत्सर का उत्पादक एवं नियामक हैं ।
पुरुष सूक (१०/७०/८ - १९) आगे कहता है कि उससे ही अन्न, वनस्पति, प्राणिजगत ( अन्य एवं पालतू ), आकाशचारी जीव आदि की सृष्टि हुई ।
उसी से ही वैदिक ज्ञान उत्पन्न हुआ । उसके मुख से ब्राह्मण, बहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा चरण से शूद्र प्रकट हुए ।
उपादानों का प्रश्न मन से चन्द्रमा,
जहां तक प्राकृतिक है, उस विराट् पुरुष के
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