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चक्षु से सूर्य, मुख से अग्न्यादि तेजस तत्त्व, उसका विधान है कि उसके द्वारा उपजाये प्राण से वायु, नामि से अन्तरिक्ष, सिर से गये सम्पूर्ण जीव-लोक एवं प्राकृतिक पदार्थ द्युलोक, पांवा से भूमि, तथा श्रोतों से दिशाएँ यथा अग्नि, जल, तेज, अन्न, वायु, पूषा, प्रकट हुई:
नदियां, आदित्य, अन्तरिक्ष एवं उनके विष्णु, चन्द्रमा मनसो जात
रुद्र, सोम, अदिति, वरुण आदि दिव्य सूक्ष्म श्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
स्वरूप परस्पर अनुकूल होकर विकसित होते मुखादिन्द्रश्चग्निश्च
चले जाँय :प्राणात्वायुरजायत ॥
अग्निरिन्द्रो वरुणो मित्रो नाभ्या आसीदन्तरिक्ष
अर्यमा वायुः पूषा सरस्वती सजोषसः। शी? द्यौः समवर्तत । ।
आदित्या विष्णुमरुतः पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रा
स्वर्वृहत्सोमो रुद्रो तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥१०/७०/१३-१४॥ आदितिव्रह्मणस्पतिः ॥१०/६५/१ ॥
अथर्ववेद (३/२७/६) में पुरुष के दिशाओं के अधिपति एवं रक्षक स्वरूपों की इस प्रकार
इस प्रकार वह जगत का न केवल चर्चा भी आई है :
निमित्त एवं उपादान कारण है अपितु समक. दिशा अधिपति रक्षक-इपव
वायि-कारण भी है । १. प्राची अग्नि आदित्य तेजस एवं तमस, परमाणु एवं आकार, २. दक्षिण इन्द्र पितर पंचभूत एवं अदिति, समुद्र एवं नदियां, ३. प्रतीची वरुण
सूर्य एवं चन्द्रमा, संवत्सर एवं ऋतुएं, वायु ४. उदीची सोम अशनि एवं सोम, अन्न एवं पीरुध, द्यौ-पृथिवी ५. ध्रुवा विष्णु पीरुध आदि सप्तलोक एवं मनुष्य एवं प्राणि-जगत ६. ऊर्ध्वा बृहस्पति वर्षम् जैसे भौगोलिक माध्यम द्वारा वैदिक-ऋषियोंने
जगत की सृष्टि ही नहीं, उसके सम्पूर्ण सृष्टि-विज्ञान को जो काव्य-मय किन्तु विकास का प्रेरक एवं साक्षी मी वही है। गैज्ञानिक अभिव्यक्ति दी है, वह स्तुत्य है।
बुद्धि की सीमा पूर्णहोने पर सत्यका मार्ग है.
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