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संक्षेप में, इस पृथ्वी के स्वरुपादि-ज्ञान आचार्य विद्यानन्दि ने परामर्श दिया है कि से मनुष्य को उसकी अनन्त-यात्रा का अतीत, हम सब जैन-आगमों का, तथा उसके ज्ञाता वर्तमान व भविष्य स्पष्ट हो जाता है । वह सद्गुरुओं का आश्नय लेकर, किसी भी तरह, अपने निरापद-गन्तव्य का निर्धारण कर सकने मध्य लोक का परिज्ञान तथा उस पर विचारमें समर्थ होता है । इसीलिए, आचार्य विमर्श करें ।३।। विद्यानन्दि ने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में प्रति- (२) जैन परम्परा में सृष्टि-विज्ञान का पादित किया है कि समस्त लोक का, तथा
आध्यात्मिक महत्त्व पृथ्वी पर स्थित जम्बूद्वीपादि का निरुपण शास्त्रों में न हो, तो जीव अपने स्वरुप से ही .
यहां यह उल्लेखनीय है कि वैदिक परअ-परिचित रह जाएगा । ऐसी स्थिति में,
__ म्परा में भी उक्त चिन्तन व विमर्श की आत्म-तत्त्व के प्रति श्रद्धान, ज्ञान आदि की
प्रेरणा ऋषियों द्वारा दी गई है। सम्भावना ही समाप्त हो जाएगी । अतः ।
अन्नपूर्णोपनिषद् में कहा गया है कि हमें
- अपने अन्दर की सत्ता के साथ-साथ बाह्य सत्ता २. तदप्ररुपणे जीव-तत्त्व न स्यात् प्ररूपितम्। के स्वरुप की भी छानबीन करनी चाहिए।४
विशेषेणेति तज्ज्ञान-श्रद्धाने न प्रसिद्धयतः॥ जैन परम्परा में भी सृष्टि-विज्ञान की तन्निबन्धनमक्षुण्ण चारित्रं च तथा चर्चा तात्त्विक व धर्म-चर्चा के रुप में मान्य क्व नु । मुक्तिमार्गोपदेशो नो शेषत- है । जैन सृष्टि-विज्ञान भौतिक विज्ञान की त्त्वविशेषवाक् (तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक सू० सीमित परीक्षण-पद्धति पर आधारित नहीं, ३/३६, खड-५, पृ० ३९९) ॥ वह तो सर्वज्ञ जिनेन्द्र-देव के स्वतः तपः
तेषां हि . द्वीपसमुद्रविशेषाणामप्ररुपणे ३. द्वीपसमुद्रपर्वतक्षेत्रसरित्प्रभृतिविशेषः सम्यकू मनुष्याधाराणां नारकतिर्यग्देवाधाराणामप्यप्ररुप- सालनैगमादिनयेन ज्योतिषा प्रवचनमूलणप्रसगान्न विशेषेण जीवतत्त्वं निरुपित स्यात् , सूर्जन्यमानेन कथमपि भावबभिः तन्निरुपणाभावे च न तद्विज्ञानं च सिद्धयेत् , सद्भिः , स्वयंपूर्वापरशास्त्रार्थ पर्यालोचनेन तद्-असिद्धौ श्रद्धान-ज्ञाननिबन्धनमक्षुण्ण प्रवचनपदार्थविदुपासनेन च अभियोगाचारित्रं च क्व नु सम्भाव्यते ? मुक्तिमार्गश्च दिविशेषविशेषेण वा प्रपंचेन परिवेद्यः क्वैवम् ? शेष-अजीवादितत्त्ववचनं च नैव (वहीं, पृ० ४८६, त० सू० ३/४० पर स्यात् । ततो मुक्तिमार्गोपदेशमिच्छता सम्यग्- श्लोकवार्त्तिक) । (तुलना-संशीतिः दर्शन-ज्ञान-चारित्राण्युपगन्तब्यानि । तदन्यत- प्रलय प्रयाति सकला भूलोकसम्बन्धिनीमापाये मुक्ति-मार्गानुपपत्तेः, तानि चाभ्युपगच्छता हरिवंशपुराण-५/७३५) । तद्विषयभावमनुभवत् जीवतत्त्वमजीवादितत्त्ववत् ४. कोह कथमिद किं वा कथं मरणजप्रतिपत्तव्यम् । ' तत्प्रतिपद्यमाने च तद्विशेषा न्मनी । विचारयान्तरे वेत्थं महत्तत् आधारादयः प्रतिपत्तव्याः (वहीं, पृ० ३६६) ॥ फलमेष्यसि (अन्नपूर्णोनिषद्, १/४०) ॥
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