Book Title: Jambudwip Part 03
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 167
________________ ७० मील) हो गया है । १ यह कचरा भरत क्षेत्र स्वच्छ व समतल प्रकट हो जाता है४ । के आर्यखण्ड में ही इकट्ठा होता है, शेष पृथ्वी पर काल-क्रम से पर्वतादि के म्लेच्छ खण्डों में नहीं । यह कचरा अवस- बढने तथा पृथ्वी की ऊंची-नीची हो जाने पिणी काल के अन्त में (खड प्रलय के सभय) की घटना का समर्थन जनेतर पुराणों से प्रलयकालीन मेघों की ४९ दिनों तक की भी होता है । भागवत पुराण में वर्णित है भयंकर वर्षा से ही नष्ट हो पाता है। कि पृथु राजा के समय, पृथ्वी पर बडे-बडे प्रलयकालीन मेघ आग वर्षा कर इस बढे पहाड (गिरिकूट) पैदा हो गए थे । पृथ्वी हुए भाग को जलाकर राख कर देते हैं। से अन्न उपजना भी बन्द हो गया था । उस समय आग की लपटें आकाश में ऊंचे उस समय, राजा पृथु ने प्रजा की करुणलोकान्त तक पहुंच जाती हैं। मेघों की पुकार कर पृथ्वी पर बढ़े गिरिकूटों को चूर्णजल-वर्षा से भी पृथ्वी पर कीचड आदि कर, भूमि की समतलता स्थापित की थी६ । साफ होकर, पृथ्वी का मूल रुप दर्पणतलवत् ४. (क) ताहे अज्जाखड दप्पणतलतुलिद कतिसमवढें । गयधूलिपंककलुस १. पृथ्वी का उच्चतम भाग हिमालय का गौरीशंकर (माउण्ट एवरेस्ट) है जो होइ सम सेसभूमीहिं (तिलोयप. समुद्रतल से २९ हजार फीट (लगभग), ४/१५५३) ॥ विसग्गिवरिसदडूढ मही । इगजोयणमेत्तमधो चुण्णीसाढे पांच मील उंचा है । समुद्र की अधिकतम गहराई ३५४०० फीट (लग किज्जदि हु कालवसा (त्रिलोकसार -८६७) ॥ भग ६ मील) नापी गई है । प्रकार (ख) भोगभुमि में पृथ्वी दर्पणवत् पृथ्वी-तल की ऊंचाई-नीचाई साढे ग्यारह मील के बीच हो जाती है । मणिमय होती है (त्रिलोकसार शास्त्रों में बताया गया है कि समभूमि -७८८)। से लवणसमुद्रका जल १६ हजार (ग) भागवतपुराण में भी संवतक योजन उंचा है (त्रिलोकसार, ९१५, वन्हि द्वारा भ-मण्डल के जलने समवायांग-१६/११३)। का वर्णन प्राप्त है (भागवत पुराण -१२/४/९-११) । २. एवं कमेण भरहे अज्जाखडम्मि जोयण ५. सम्भवतः यह स्थिति अवसर्पिणी के एक्क । चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ समाप्त होने तथा उत्सर्पिणी के प्रारम्भ वडूिढगदा भुमी (तिलोयपण्णत्ति-४/ १५५१) ॥ ६. चूर्ण यन् स्वधनुष्कोट्यां गिरिकूटानि राजराद् । मूमण्डलमिदं गैन्य-प्रायश्चके ३. तिलोयप. ४/१५५२ सम विभुः (भागवत पुराण-४/१८/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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