Book Title: Jambudwip Part 03
Author(s): Vardhaman Jain Pedhi
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

View full book text
Previous | Next

Page 161
________________ (२) महाहिमवान् (३) निपध, (४) नील (५) हैं । गंगा नदी दक्षिणाध भरतक्षेत्र के मध्य रुक्मी, (६) शिखरी । इस प्रकार जम्बूद्वीप के में से होकर प्रवाहित होती हुई, पूर्वाभिमुख सात विभाग हो जाते है जिनकी वर्ष या हो, चौदह हजार नदियों सहित पूर्वी लवण 'क्षेत्र' संज्ञा है । ये क्षेत्र है-(१) भरतक्षेत्र समुद्र में जा गिरती है८, इसी प्रकार, सिन्धु (२) हैमवत, (३) हरि (४) विदेह, (.) रम्यक नदी वैताढय पर्वत को भेदती हुई, पश्चिमा(६) हैरण्यवत, (७) ऐरावत३। भिमुख होती हुई, चौदह हजार नदियों सहित पश्चिमी लवण समुद्र में जा गिरती है९ । मेरु पर्वत विदेह क्षेत्र के मध्य पड़ता है४ । मेरू के पूर्व की __ इसी प्रकार, अन्य नदियों (रोहितांसा, ओर का विदेह 'पूर्व विदेह', पश्चिम की ओर का 'पश्चिम विदेह', रोहिता, हरिकान्ता आदि) का भी उद्गम उत्तर की ओर का 'उत्तर कुरू', तथा दक्षिण आगमों में प्रतिपादित किया गया है १० । गंगा . आदि नदियों में महद्धिक देवताओं का वास की ओर का विदेह 'देवकुरु' कहलाता है५ । - हैं, तथा भरत-ऐरावतादि में पुण्यशाली तीर्थभरत, हैगवत तथा हरि क्षेत्र मेरु के दक्षिण । की ओर स्थित है, तथा रम्यक, हैरण्यवत ७. ति० प० ४।१९५-१९६, २५२, त० सू० व ऐरावत क्षेत्र उत्तर की ओर स्थित हैं। ३।२० (दिग० संस्करण), हरिवंश पु० ___जम्बूद्वीप में ६ महाद्रह हैं६, जिनमें पद्मद्रह ५।१३२, बृहत्क्षेत्रसमास-२१४, . से गंगा नदी व सिन्धु नदी का उद्गम होता ८. ति० ५० ४।१९६, २१०-२४०, त० सू० ३।२१ (दिग० स०), लोकप्रकाश-१६। ३. हरिवंश पु० ५।१३-१४, त० सू० ३।१० २३६-४९, जंबूहीव ५० (श्वेता०) ४७४, लोकप्रकाश, १५।२५८-६० ति०प० ४।९१, .. हरिवंश पु० ५।१३६-१५०, २७५, २७८, स्थानांग-६/८४, ७।५०, जंबूद्दीव (श्वेता०) स्थानांग-७।५२, बृहत्क्षेन्नसमास-२१५-२२१ ६।१२५, बृहत्क्षेत्रसमास-२२-२३, ९. त० सू० ३।२२ (दिग० सं०), लोक४. त० सू० ३।९, लोकप्रकाश-१८।३, हरि- प्रकाश-१६।२६०.२६३, जंबूद्दीव ५० वंश पु० ५।३, २८३, बृहत्क्षेत्रसमास- (श्वेता०) ४।७४, ति० ५० ४।२३७३, ४।२५२-६४, हरिवंश पु० ५।१५१, स्था. नांग-७५३, बृहत्क्षेत्रसमास-२३३, ५. लोकप्रकाश-१७।१४-१६, १८।२-३, त० ५०. लोकप्रकाश-१६।२६७-४५५, सू० ३।१० पर श्रुतसागरीय वृत्ति, स्था १९।१५३ १८३, हरिवंश पु० ५।१३३-१३५, तिलोय नांग-४।२।३०८, बृहत्क्षेत्रसमास-२५७, प० ४।२३८०, २८१०-११, स्थानांग६. त० सू० ३.१४ (दिग० संस्करण), ७५२-५३, राजवार्तिक-३।३२, जंबूद्दीव स्थानांग-६।३।८८, जंबूद्दीव प० (श्वेता०) (श्वेता०) ४।७७, ६।१२५, बृहत्क्षेत्रसमास ४।७३, बृहत्क्षेत्रसमास-१६८, १९६-१९५, १७१-१७२, २३३, २५७, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250