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जैन धर्मशास्त्र और आधुनिक विज्ञान के आलोक में पृथ्वी
(अ) प्रस्तावना
मानव एक चिन्तनशील प्राणी है । ९ वह अपने आसपास की वस्तुओं तथा वातावरण के रहस्य को समझने के लिए चिर- काल से प्रयत्नशील रहा है । संसारी - मानव की इन्द्रियों की प्रकृति बहमुखी है, इसलिए अपने अन्तर और झांकने की बजाय, उसका बाह्य जग के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था । २ असंख्य संसारी-प्राणियों में से वह कोई धीर-वीर ही होगा जिसने सर्व प्रथम आत्मतत्त्व को जानने का यत्न किया । (क) भारतीय संस्कृति में पृथ्वी
मानव के साहित्यिक मस्तिष्क ने इस १. मण्णति जदो णिच्च मणेण णिउणा जदो दु ये जीवो। मणउक्कडा य जम्हा, तम्हा ते माणुसा भणिया ( पंचसंग्रह - प्राकृत, १ / ६२ ) || गोम्मटसार - जीवकाण्ड, गाथा - १४९.
२. पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः तस्मापराङ् पश्यति नान्तरात्मा (कठोप० २/४/१) ।
३. कश्चिद् धीरः प्रत्यगात्मानमेक्षत् आवृत्तचक्षुरत्वमिच्छन् (कठोप० २/४/१) ।
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सृष्टि को किसी अदृश्य व देवी महासाहित्यकार की अनुपम, मनोहर व चिरन्तन कृति के रूप में देखा |४ उसके सौन्दर्यानुरागी स्वभाव ने प्रातःकालीन उषा को कभी एक सुन्दर नर्तकी के रूप में, ५ तो कभी एकसंचरणशील नवयौवना नारी के रुप में निहारा । ६ और, यह धरती व आकाश - जिसकी छत्रछाया में वह रहता आया था— उसके लिए माता व पिता थे । ७
४.
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति (अथर्ववेद, १०/८/३२) ।
ऋग्वेद, १/९२/४
ऋग्वेद, ७/८०/२
५.
६.
७.
डा. दामोदर शास्त्री कटवारीया सराय नई दिल्ही - १६
(क) माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (अथर्व ० १२/१/१२) । तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः (यजुर्वेद, २५/१७) । पृथिवि मातः (यजु० १० / २३) ।
(ख) जिज्ञासा व समाधान की प्रक्रिया के क्रम में ही सम्भवतः मानव ने पृथ्वी व अंतरिक्ष रुपी माता-पिता के भी जनक या पालक (परम - पिता) की कल्पना की होगी:- द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ( श्वेता उप० ३/३) । द्यावापृथिवी बिभर्ति (ऋ०
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