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कालिदास के प्रत्यभिज्ञादर्शन का व्यावहारिक मन एकादश इन्द्रिय है । संकल्प-विकएवं अविचारित-रमणीय रुप है । प्रत्यभिज्ञा ल्प से युक्त होने के कारण सम्यक् पूर्ण दशन का कालक्रम चाहे जो हो परन्तु शाकु- शरीर पर प्रभावी है । मन इन्द्रिय रूपी न्तल में वह चरितार्थ अवश्य होता है। अश्वों को नियंत्रित करने वाला खलीन (लगाम ____ नाटक के प्रारम्भ में ही कालिदास है१६ । मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का भी आर्य मन की चर्चा करते हैं। यह वही मन , है, जिसकी शिवसंकल्पता१० वेद में प्रस्तुत की
नियामक वही है । मन की इसी अप्रतिहत
गरिमा के कारण कालिदास नतमस्तक हैं । गई है और श्रीमद्भगवद्गीता में जिसकी
उनके समस्त काव्यों में मन ही निर्णायक अचलता को स्थिरप्रज्ञता की आधारशिला
तथा अन्तिम माध्यम है । नन्दिनी गाय स्वीकार किया गया है११ । दुष्यन्त को अपने
हिंस्र पशुओं के लिये 'मन से भी' धर्षित उसी आर्य मन का प्रत्यय है, जो कि
करने योग्य नहीं है१७ । विरहिणी यक्षिणी भी आचारपूत है, निष्कल्मष है, धर्म प्रवण है१२ ।
किसी व्याधि (रोग) से पीड़ित न होकर वह मन एक स्थिरप्रज्ञ राजर्षि का है, न कि
'आधिक्षामा' है१८ । रति भी काम को उपावासना-लम्पट किसी साधारण व्यक्ति का राजर्षि दुष्यन्त का वही संस्कार-पूत मन
लम्भ देती हुई मन अथवा हृदय को ही जीवन के अनेक निर्णायक मोडों पर उनका
साक्षी बनाती है१९ । इस प्रकार, कालिदास, साथ देता है । शकुन्तला-प्रत्याख्यान१३ में तथा
__ अपने समस्त पात्रों को 'मम पूत' प्रस्तुत करते
है ताकि ते लोकोत्तर आदर्शों के प्रतिमान हेमकूट पर्वत१४ पर वही पवित्र दुष्यन्त को ऋत और सत्य का बोध कराता है । उसी
बन सकें । मनःपूतता के ही कारण कालिदास मन के कारण पार्वती को भी अपने प्राक्त
के समस्त चरित्र अनुकरणीय बन सके हैं । प्राणवल्लभ पिनाकी का बोध होता है१५ ।
इन्द्रिय-संघात, मन, बुद्धि आदि के
अनन्तर सूक्ष्मता-क्रम में आत्मा आती है । १०. तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । ११. द्रष्टव्य-गीता २/६०,६१
१६. आत्मान रथिन विद्धि मनः प्रग्रहमेव १२. असंशय क्षत्रपरिग्रहक्षमा यदायमस्याम- च । कठोपनिषद्
भिलाषि मे मनः । -शाकु० २/२२ १७. सा दुष्प्रघर्षा मनसापि हिंस्रः । १३. काम प्रत्यादिष्टां स्मरामि न परिग्रह मुनेस्तनयाम् ।
-रघुवंशमहा० २/२६ बलवत्तु दूयमान प्रत्याययतीव
१८. आधिक्षामा विरहशयने सन्निषण्णैक्यामां हृदयम् ॥ शाकु० ५/३१ । १४. किन्तु खलु बालेऽस्मिन्नौरस इव पुत्रे
र्वाम् । उत्तरमेघे श्लो० २६ स्निह्यति मे मनः । -शाकु० अं६ १९. हृदये वससीति मत्प्रिय यदवोचस्त१५. उमारुपेण ते यूयं संयमास्तिमित मनः ।
दवैमि कैतवम् । शम्भोर्यतध्वमाक्रष्टुमयस्कान्तेन लोहवत् ॥
उपत्तारपदं न चेदिदं त्वमनङ्गः कुमार० २/५८
कथमक्षता रतिः ॥ कुमार० ४/९
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