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राजा राधिकारमणप्रसादसिंह
जीवन के एक विशिष्ट कलाकार
श्री जैनेन्द्र जी की लेखनी अपने ढंग की अनूठी है। साहित्य के चमन में वह-वह गुल खुल-खिल उठे कि क्या कहे कोई !--
'किसी में रंग व बू ऐसा न पाया,
चमन में गुल बहुत गुजरे नजर से।' जीवन की वृत्तियों के अन्तस्तल में डूबकर वह जो मोती सँजो पाए, उनके निखार के क्या कहने ! इनकी प्रतिभा जीवन के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर ही रंग नहीं चढ़ाती; वरन् मनोविश्लेषणात्मक दायरे के अन्दर जीवन-दर्शन की जो सार्वभौम रूप-रेखा का एक रहस्यमय संसार है, उसे भी विश्लेषित एवं परिचालित करती है।
श्री जैनेन्द्र जी जीवन की अतल गहराई तक पैठकर इसके प्रत्येक कोने-कोने को इसके प्रत्येक रेशे-रेशे को-भली-भाँति टटोल लेते हैं और सत्य-स्वरूप जो कुछ हाथ आता है, उसे अपने पात्रों के शील-विशेष में पिरो देते हैं। इनकी करुणात्मक प्रतिभा तंत्रशास्त्र-सम्मत है । इच्छाएं जीवन में बड़ी बलवती हैं । मन की इच्छाओं के ताने-बाने में बँधकर यह जीवन रात-दिन क्या-क्या अंगड़ाइयाँ ले रहा है-लेता रहेगा निरन्तर । श्री जैनेन्द्र जी के प्रायः सभी पात्र इन इच्छाओं की वर्तुल भावगति की द्वन्द्वात्मक स्थिति से लड़ते और जूझते हैं । यहाँ श्री जैनेन्द्र जी फायड के सिद्धान्त पर भी अपना एक नया रंग चढ़ाते हैं।
इनकी प्रतिभा मानव के मनःजगत् तक ही सीमित नहीं, वरन् मानव के आत्म-जगत् तक पहुँच कर उसके आध्यात्मिक तत्त्वों की रसात्मक अन्तश्चेतना की पूरी दार्शनिक विवेचना प्रस्तुत करती है । यही इनकी निराली प्रतिभा की अनूठी देन है।
इनके भिन्न-भिन्न पुरुष और नारी पात्रों के रूप और नाम की तह में जाने पर गुणनफल रूप में केवल एक स्त्री रह जाती है और दूसरा रह जाता है पुरुष । प्राणी के प्राण में बहुत गहरे जाकर जैसे सब बाह्य रूप-विधान सतह पर ही छूट जाते हैं । केवल दो ही तत्त्व-स्त्री और पुरुष-- शेष रह जाते हैं।
सुनीता हरिप्रसन्न के साथ बिल्कुल नग्न होकर भी अपने सतीत्व की मर्यादा में पूर्ण रूप से जीवित और संयमित है । सुनीता तन को नग्न कर मन की नग्नता
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