Book Title: Jain Vidya 14 15 Author(s): Pravinchandra Jain & Others Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 8
________________ जैनविद्या 14-15 नवम्बर 1993-अप्रेल 1994 जिन-सूत्र के ज्ञाता एवं कलिकाल सर्वज्ञ : आचार्य वीरसेन - डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल जैन दर्शन चेतन और जड़ द्रव्यों की स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता का पोषक दर्शन है, जो अनादिनिधन है। इस कालचक्र के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर हुए जिन्होंने केवलज्ञान हो जाने पर जगत के जीवों को आत्मा की स्वतंत्रता और स्वावलम्बन का बोध कराकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने दिव्य ध्वनि के माध्यम से बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की अर्थरचना की। निर्मल चार ज्ञान से युक्त ब्राह्मण वर्णी एवं गौतम गोत्री इन्द्रभूति गौतम ने महावीर के पादमूल में उपस्थित होकर उनकी दिव्य ध्वनि का अवधारण किया और बारह अंग तथा चौदह पूर्व रूप ग्रन्थों की एक ही मुहूर्त में क्रम से रचना की। इस प्रकार भावश्रुत एवं अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर महावीर हैं और द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। अंग-ज्ञान की परम्परा गौतम इन्द्रभूति के पश्चात् सुधर्मा और जम्बूस्वामी, ये दो केवली और हुए। ये सकल श्रुत के पारगामी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु - ये पांचों आचार्य परिपाटी-क्रम से चौदह पूर्व के धारक श्रुतकेवली हुए। पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल आदि ग्यारह महापुरुष ग्यारह अंग, दश पूर्वो तथा चार पूर्वो के एकदेश ज्ञाता हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल आदि पांच आचार्य परिपाटी-क्रम से सम्पूर्ण ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो के एकदेश-धारक हुए। तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु औरPage Navigation
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