Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 16
________________ आशीर्वचन देवपूजा के लिए जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, वीतरागी दिगंबर गुरुओं के धर्मोपदेश-हेतु प्रवचन-हाल, स्वाध्याय के निमित्त सरस्वती-भवन एवं अपने निवास और मुनिराजो आदि के आहार-दान के लिए उत्तम-गृह का निर्माण गृहस्थ के कर्तव्यों में सम्मिलित है। अपने न्यायोपार्जित-अर्थ के सदुपयोग और शुद्ध आहार-विहार के ये उत्कृष्ट साधन हैं। मदिर और भवन-निर्माण में जो भूमि-खनन एव शिलान्यास की विधि शुभ मुहूर्त में की जाती है, उसका एक उदाहरण स्मरणीय है। 'अयोध्या' तीर्थंकर ऋषभदेव आदि अनेक तीर्थकरो की जन्म-भूमि है। वहाँ मुगलकाल मे एक दिगम्बर जैन मंदिर के स्थान में मस्जिद का निर्माण करा दिया गया था। कालान्तर मे वहाँ के हाकिम के पास जाकर एक दिगम्बर जैन कार्यकर्ता ने निवेदन किया कि "इस मस्जिद के स्थान पर पहले दिगम्बर जैन-मदिर था। उसके प्रमाणस्वरूप जमीन के नीचे नींव मे पूजा-सामग्री विद्यमान है।" हाकिम ने भूमि खुदवाकर जब वह पूजा-सामग्री देखी, तो तत्काल उस स्थान पर जिनमंदिर-निर्माण की आज्ञा दे दी। आज भी हम शिलान्यास मे ताम्रकलश, दीपक आदि नींव में रखते है। प्रशस्तियंत्र भी वहाँ स्थापित करते हैं। प्रस्तुत ग्रथ में दिशासूचक-यत्र से 'पूर्व' आदि दिशाओं के ज्ञान का उल्लेख किया गया है। वर्तमान में इंजीनियर्स भी यही संकेत करते हैं। परन्तु उस यंत्र से सूर्य की पूर्व दिशा 'आग्नेयकोण' में आती है। यह 'आग्नेयकोण' पूर्व-दक्षिण दिशा का है। जबकि पूर्वदिशा आग्नेय' और 'ईशान कोण के मध्य में है। ये चारों दिशायें निश्चित रहती हैं, जबकि सूर्य दक्षिणायन-उत्तरायण होता रहता है। इस त्रुटिपूर्ण परामर्श से अनेक मंदिर दक्षिण-दिशा में निर्मित हो गये। पंचांग से सर्य की गति का ठीक ज्ञान होता है, और मदिर, गृह, कूप आदि के शिलान्यास-संबंधी नियम अलगअलग हैं, जिन्हे ज्योतिष शास्त्र बनाता है। ऐसे अनेक तीर्थस्थल हैं, जो परिस्थिति और सुविधा के अनुसार यथास्थल निर्मित न होकर अन्यत्र निर्मित हुए हैं। परन्तु हमारा शाश्वत तीर्थराज सम्मेदशिखर ऐसा है, जहाँ पर जिस स्थान से जो तीर्थकर मुक्त हुए हैं, उसी स्थान पर उनका मंदिर - जैन पास्त-विधा VI

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