Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 98
________________ प्रतीकात्मक मंदिर जैनमदिर समवसरण के प्रतीक है; परंतु कुछ जैनमदिर नंदीश्वरद्वीप, सहस्रकूट आदि के भी प्रतीक माने जा सकते है। जैनमदिरो के जो चौसठ प्रकार 'प्रासाद-मडन' आदि में बताए गए है, उनका सूक्ष्म अध्ययन करने पर कुछ और प्रतीकात्मक मदिरो का ज्ञान हो सकता है। इसीप्रकार के मंदिरो मे नदीश्वरद्वीप मदिर के अतिरिक्त अन्य किसी मदिर का स्पष्ट लक्षणों और विशेषताओ के साथ निर्माण या मूर्ति-शिल्प मे अंकन बहुत ही कम हुआ है। विश्वकर्मा ने 'दीपार्णव' के बीसवे अध्याय में पूर्वोक्त बावन जिनप्रासादो का वर्णन किया है, वे वास्तव मे नदीश्वरद्वीप का प्रतिनिधित्व करते हैं; यद्यपि उनका अलग-अलग स्वरूप बताया गया है। जैन भूगोल मे मध्यलोक के आठवे द्वीप का नाम 'नन्दीश्वर' है । स्थापत्य मे नन्दीश्वरद्वीप के अनुसरण पर मंदिर बनाने की परपरा रही है। शिलापट्टो पर भी इनका अकन होता रहा है। इस द्वीप मे प्रत्येक दिशा मे तेरह-तेरह अकृत्रिम मंदिर, कुल बावन मंदिर होते हैं। आष्टानिक या अठाई पर्व के रूप मे वर्ष मे तीन बार इन बावन मदिरो मे स्थित जिन मूर्तियो की पूजा का प्रचलन है 52 सहस्रकूट सहस्रकूट भी जैनमदिरो का एक प्रकार है, जिसमे एक हजार कूट (शिखरयुक्त मंदिर) होना चाहिए। इसप्रकार का मंदिर उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध तीर्थ देवगढ (जिला- ललितपुर) में विद्यमान है। यद्यपि उसमे शिखरयुक्त मदिरो का अलग निर्माण नहीं है, बल्कि जो मंदिर है, उसी की बाह्य भित्ति पर एक हजार लघु मदिर उत्कीर्ण कर दिए गए है। बलात्कारगण दिगम्बर जैन मन्दिर, कारजा (महाराष्ट्र) मे सहस्रकूट- चैत्यालय की एक सुन्दर कास्यमूर्ति है। मध्यप्रदेश के रायपुर मे महत घासीदास स्मारक संग्रहालय मे भी एक खडित शिल्प-रचना है, जिसे 'सहस्रकूट' कह सकते है। कल्याण भवन, तुकोगज, इदौर के शातिनाथ दि० जैन मंदिर में भी सहस्रकूट- चैत्यालय है । स्तूप : जैन स्थापत्य की अनूठी देन प्राचीन भारतीय स्थापत्य मे स्तूपो के निर्माण की परम्परा थी। यह (जैन वास्तु-विद्या 72

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