Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 121
________________ मध्य का अष्टकोण भाग। कपोत : कार्निश की तरह का नीचे की ओर झुका हुआ वह गोटा, जो सामान्यतः चौकी (अधिष्ठान या वेदि-बंध) के ऊपर होता है। कर्ण : कोण-प्रस्तर या कोना; कोण-प्रक्षेप। कर्ण-कूट : कर्ण या कोने के ऊपर निर्मित लघु मंदिर या कगूरा। कर्ण-शृंग : कर्ण या कोने पर निर्मित कंगरा। कर्णिका : असि-धार की तरह का गोटा; पतला पट्टी-जैसा गोटा। : पुषकोश के आकार का गोटा, जिसका आकार घट के समान होता है। दक्षिण भारतीय स्तंभ-शीर्ष का सबसे नीचे का एक भाग। कायोत्सर्ग : खड्गासन की तरह का वह आसन, जिसमे खड़ी हुई तीर्थकर मूर्तियाँ होती हैं। कीचक : ऐटलस; एक बौना व्यक्ति, जो भार को या भवन के ऊपरी भाग को धारण करता है। कीर्तिमुख : कला मे प्रचलित एक प्रतीकात्मक डिजाइन, जिसकी बनावट सिह के शीर्ष की-सी होती है। : अधिष्ठान (वैदि-बध) का खुर के ऊपर का एक गोटा; दक्षिण भारतीय स्तंभ-शीर्ष का एक ऊपरी भाग। कुंभिका : स्तभ की अलंकृत चौकी। कूडु (तमिल) : वक्र कार्निस (कपोत) स आरंभ होनेवाला एक ऐसा प्रक्षिप्त भाग, जो तोरण के नीचे खुला होता है; अर्थात् चैत्य-गवाक्षा क्षिपत-वितान : नतोदर छत। खट्वांग : एक अस्थि पर टंगा नरमुण्ड (एक भयानक देवता की वस्तु)। : अत्यंत अलंकृत प्रक्षिप्त आला, जो गवाक्ष से मिलता-जुलता है। : अधिष्ठान (वैदि-बंध) का सबसे नीचे का गोटा। गजतालु : छत का एक अवयव, जो मंजूषाकार सूच्यग्र के समान होता है। गज-धर : गजों की पक्ति। (जन वास्तु- पिता

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