Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 107
________________ आशाधर ने 'प्रतिष्ठा - सारोद्धार' के आरंभ में ही दिया है, "जिन-चैत्य-गृहं जीर्णमुद्धार्य च विशेषतः ।" तीर्थंकर की पूजा के जो पाँच प्रकार है, उनमे प्रथम है नित्यमह । जो पुण्यार्थी 'नित्यमह' पूजा करना चाहे, वे जैन मदिरो का निर्माण कराएँ, परंतु विशेषता यह होगी कि वे पुराने मंदिर का उद्धार कराएँ । जीर्णोद्धार के समय ध्यान रहे कि मुख्यद्वार जरा भी इधर-उधर परिवर्तित ना किया जाय, वह जिस दिशा में, जिस स्थान पर, जिस नाप का हो; उसी दिशा में स्थान पर और नाप का रखा जाए। आश्चर्य है कि मदिरों के जीर्णोद्धार के जो उल्लेख या उदाहरण शिलालेखो आदि मे मिलते है, उनमे अधिकाश जैन है। आज भी प्राचीन या खंडहर पूजास्थल के जीर्णोद्धार की प्रथा सर्वाधिक जैनो में दिखती है। इस संदर्भ मे प्रसिद्ध विद्वान् जेम्स फर्गुसन का निष्कर्ष उल्लेखनीय है, जो उन्होने हिस्ट्री ऑफ इंडियन एड ईस्टर्न आर्किटेक्चर' मे व्यक्त किया है: "हिन्दू मन्दिर या मुसलमानों की मस्जिद अपवित्र कर दी जाये अथवा खडहर हो जाए, तो कोई उसका जीर्णोद्धार नहीं कराएगा वरन् उसकी सामग्री का उपयोग करके नए से नए फैशन का मंदिर या मस्जिद बना ली जाएगी। जैनो मे यह बात नही है। कोई जैन एकदम नया मंदिर बनाने में समर्थ न हो, पर इतना समर्थ तो होगा ही कि वह किसी पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार कर दे क्योकि वे जीर्णोद्धार मे भी नया मंदिर बनाने के बराबर पुण्य मानते है, जैसा कि हम (अग्रेज) लोग भी आमतौर पर मानते हैं; परतु जीर्णोद्धार का उन (जैनो) का तरीका यह है कि वे चूना की मोटी परत चढाकर मंदिर की समूची बाहरी दीवाल की सजावट ढक देते है, जिससे उसकी रूपरेखा भर दिखती रह जाती है। भीतरी दीवालो पर भी आम तौर पर परत-दर-परत सफेदी करा दी जाती है, जिससे उसकी कला प्रभावहीन हो जाती है, यद्यपि वह सफेदी किसी हद तक हटाई जा सकती है।" जैन- मूर्तियों का जीर्णोद्धार यह भी आश्चर्यजनक है कि मदिरो के जीर्णोद्धार में सबसे आगे रहनेवाले जैन लोग मूर्तियों के जीर्णोद्धार के पक्ष मे बहुत कम रहे, तभी तो उसकी परम्परा पुरातत्त्व में भी अदृश्य है और साहित्य मे भी। खंडित हो जाने पर मूर्ति को जल मे विसर्जित करने की प्रथा कदाचित् इसीलिए चली होगी कि उसके जीर्णोद्धार का विधान नगण्य था । (जैन वास्तु-विद्या 81

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