Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 102
________________ नगर-विन्यास नगर-विन्यास और उसके कुछ उदाहरण ग्राम, पुर, नगर आदि बसाए जाने के उनके भवनो, मार्गो, बाज़ारों आदि के और जन-जीवन के विवरण जैन-साहित्य में इतनी अधिक संख्या में हैं कि उनसे नगर-विन्यास की एक स्पष्ट रूपरेखा बन सकती है। उन विवरणों मे जो स्थापत्य और मूर्ति-कला से सबद्ध पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है; क्योकि उससे देश के विभिन्न भागों में लिखे गये स्थापत्य और मूर्ति-कला के ग्रथों के क्रमिक विकास और उनके व्यावहारिक प्रयोग के तुलनात्मक अध्ययन मे सहायता मिलती है। -इस उल्लेखनीय तथ्य से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि प्राचीन जैन ग्रंथकार विधि-निषेधो की तालिकाएँ बना देने मात्र की अपेक्षा दैनदिन के जीवन को अधिक महत्त्व देते थे। ग्रामों और नगरों के भेद __ आचार्य जिनसेन ने 'आदिपुराण' के सोलहवें पर्व मे लघुतम गाँव से लेकर वृहत्तम नगर तक की बस्तियो के वर्ग बनाये और उनकी परिभाषाएँ (श्लो. 164-76) दी है। सरोवर के किनारे बगीचे में शद्रों और किसानो की बाड़ से घिरी बस्ती 'ग्राम' है। ग्राम में सौ परिवार भी हो सकते हैं और पाँच सौ समृद्ध किसान-परिवार भी। नदी, पहाड़, गुफा, वृक्ष आदि से ग्रामो की सीमा निर्धारित होती है। परिखा, गोपुर, अटारी, कोट, प्राकार, भवन, उद्यान, जलाशय आदि के साथ ऊँचाई पर बसा स्थान पर है। जिसमें जल का प्रवाह पूर्व से उत्तर की ओर हो (पूर्वोत्तर-प्लावाम्भस्क) और प्रधानपुरुष रहा करते हों। नदी और पर्वत के बीच की बस्ती खेट', पर्वतो के बीच की बस्ती "खर्वट', पाँच सौ ग्रामों से घिरी बस्ती मडंब', नावो से पहँचने योग्य समुद्रतटीय बस्ती पत्तन', नदी-तट की बस्ती 'द्रोण-मुख', जिसमें पैदा हुए धान्य के पुरुष-प्रमाण के ढेर लग जाते हो-ऐसी बस्ती 'सवाह', दस ग्रामों के (जन वास्तु-विधा 76

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