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उसीप्रकार की पट्टिकाओं से घिरे दिखाए गए है और जिनके तोरणद्वार पर पहुँचने के लिए सात-आठ सीढ़ियाँ उत्कीर्ण की गई है।
राजकीय संग्रहालय, मथुरा में सुरक्षित आयाग-पट (क्यू 2) में तोरण दो खड़े स्तभो से बना है, जिनके ऊपर थोड़े-थोडे अंतर से एक पर एक तीन आड़ी कड़ियाँ हैं। इनमें निचली कड़ी के दोनों छोर मकराकृति सिंहो पर आधारित है। स्तूप के दाएँ-बाएँ दो सुंदर स्तभ हैं, जिन पर क्रमशः धर्मचक्र और बैठे हुए सिहो की आकृतियाँ बनी है। ऊपर की ओर उडती हुई दो आकृतियों सभवतः चारण मुनियो की हैं। वे नग्न हैं, किंतु उनके बाएँ हाथ मे पीछी जैसी वस्तु एव कमंडल दिखाई देते हैं। उनका दाहिना हाथ मस्तक पर नमस्कार-मुद्रा में है। एक और आकृति युगल-गरुड पक्षियो की है, जिनके पुच्छ व नख स्पष्ट दिखाई देते हैं। दाई ओर गरुड एक पुष्पगुच्छ व बांयी ओर का पुष्पमाला लिए हैं। स्तूप के गुम्बज की दोनों ओर हाव-भाव के साथ झुकी हुई नारी-आकृतियाँ हैं। घेरे के नीचे सीढ़ियो की दोनों ओर एक-एक देवकुलिका है। दाई ओर की देवकुलिका मे एक बालक सहित पुरुषाकृति और दूसरी ओर स्त्री-आकृति दिखाई देती है।
स्तूप की गुम्मट पर छह पक्तियो मे प्राकृतभाषा मे लेख है, जिसमे अरिहत वर्द्धमान को नमस्कार के पश्चात् कहा गया है कि 'श्रमण-श्राविका आर्या लवणशोभिका की पुत्री वासु ने जिनमन्दिर में अरिहत की पूजा के लिए अपनी माता, भगिनी तथा दुहितापुत्र (नाती) के साथ निग्रंथो के अरिहंत आयतन मे अरिहंत का देवकुल (देवालय), आयाग-सभा, प्रपा (प्याऊ) तथा शिलापट (प्रस्तुत आयागपट) प्रतिष्ठित कराए। यह शिलापट 2 फुट 1 इच x पौने दो फुट है। यह अक्षरो की आकृति और मूल्यांकन की दृष्टि से प्रथम-द्वितीय शती ई०, अर्थात् कुषाण-काल' का होना चाहिए।
राजकीय संग्रहालय, लखनऊ में सुरक्षित दूसरे आयागपट (जे 255) का ऊपरी भाग टूट गया है; तथापि तोरण, घेरा, सोपानपथ (वीढ़ियाँ) एवं स्तूप की दोनों ओर नारी-मूर्तियाँ इसमें पूर्वोक्त शिलापट से भी अधिक स्पष्ट हैं। इस पर भी लेख है, जिसमें अरिहंतों को नमस्कार के पश्चात कहा गया है कि फगुयश नामक व्यक्ति की भार्या शिवयशा ने अरिहंत-पूजा के लिए यह आयागपट बनवाया। लगभग 200 ई.पू. का यह आयागपट सिद्ध करता है कि स्तूपों का प्रचार जैन-परम्परा में उससे बहुत पहले से था।