Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 91
________________ इसके पश्चात् वह गड्ढा को सघनता से भर दिया जाए और उसके तल को कूटकर ठोस बना दिया जाए। इस विधि से निर्मित भूतल पर अधिष्ठान अर्थात् पीठ या चौकी का निर्माण किया जाए। 'अधिष्ठान' परिस्थितियों के अनुसार समतल भी बनाया जा सकता है और उस पर एक से पाँच तक स्तर भी बनाए जा सकते हैं, जिन्हें 'थर' या प्रस्तर-गल' कहते हैं। कोण या कर्ण, प्रतिरथ, रथ, भद्र और मुखभद्र अधिष्ठान के विभिन्न 'घटक' या 'गोटा' हैं; परन्तु वे मुख्य भवन के ही अंग माने गए हैं। किंतु नंदी, पल्लव, तिलक और तवंग 'पीठ' के घटक होने पर भी वे मंदिर के अलंकार-तत्त्वों में परिगणित हैं। ____ मंडोवर' के तेरह अंग होते हैं। मंडोवर शब्द पश्चिम भारत में प्रचलित है और संस्कृत मंडपवर' या 'मंडपधर' शब्द का स्थानीय या अपभ्रंशरूप प्रतीत होता है। मंडोवर वास्तव में मित्ति या बाहरी दीवाल है, जिस पर प्रासाद के एक या अनेक मंडपों की छत आधारित होती है। सूत्रधार मंडन ने मडोवर के चार भेद बताए है: नागर, मेरु, सामान्य और प्रकारांतर। 'शिखर' एक वृत्ताकार छत है, जो भवन पर उल्टे प्याले की भाँति ऊँची होती जाती है। उसके चार अग होते हैं: शिखर, शिखा, शिखांत और शिखामार्ग। शिखर के ऊपरी अगों का विभाजन एक अन्य प्रकार से भी किया जाता है. छाद्य, शिखर, आमलसार या आमलक और कलश । 'आमलक के अंग हैं: गल, अंडक, चंद्रिका और आमलसारिका। कलश साधारणतः शिखर का सबसे ऊपर का भाग कहलाता है:49 उसके अंग हैं: गल. कर्णिका और बीजपूरक । शुकनासा या शुकनासिका शिखर का वह अगला भाग है, जिसका आकार तोते की चोच की भाँति होता है। शिखर के ऊपरी भाग पर दंडसहित ध्वज स्थापित किया जाए "ध्वजाहीनं न कारयेत्"7 मंदिर के द्वार की चौड़ाई ऊँचाई से आधी होनी चाहिये। द्वार की चौखट पर यथास्थान तीर्थकरों, प्रतीहार-युगल, मदनिका (सुंदरी) आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण की जाएँ। जीर्णोद्धार के समय मंदिर का मुख्यद्वार स्थानांतरित न किया जाए और न ही उसमें कोई मौलिक परिवर्तन किया जाए। 'जगती अधिष्ठान का एक घटक है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार जैन वास्तु-विधा

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